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________________ श्री उपदेश माला गाथा ८५ श्री शालिभद्र की कथा संगम ने इस तरह मुनि को दान देकर बहुत पुण्य-उपार्जन किया। व्याजे स्याद् द्विगुणं वित्तं, व्यवसाये चतुर्गुणम् । क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनन्तगुणं भवेत् ।।८४।। अर्थात् – “धन ब्याज पर देने पर दुगुना हो जाता है, व्यापार में लगाने पर चार गुना हो जाता है, योग्य क्षेत्र में खर्च करने पर सौगुना होता और सुपात्र को दान से अनंतगुना होता है।''॥८४॥ संगम ने जो दान दिया था, वह अतिदुष्कर दान था। क्योंकि दाणं दरिद्दस्स पहुस्स खंती, इच्छानिरोहो य सुहोइयस्स । तारुण्णए इंदियनिग्गहो य, चत्तार एयाई सुदुक्कराइं ॥८५|| अर्थात् - दारिद्रावस्था में दान देना, सामर्थ्य होते हुए भी क्षमा रखना, सुख के समय में इच्छा का निरोध करना, और जवानी में इंद्रियों का निग्रह करना; यह चारों कार्य अति-दुष्कर है ॥८५।। तपस्वी मुनि के चले जाने के कुछ देर बाद ही संगम की मां बाहर से आयी। उसने संगम की थाली खाली देखी तो हंडिया में जो खीर बची थी, वह भी परोस दी। संगम भूखा तो था ही, इसीलिए झटपट सारी खीर खा गया। यह देखकर माता सोचने लगी-क्या मेरा पुत्र रोजाना संकोचवश इतना भूखा रहता है? माता के रहते उसका पुत्र भूखा रहे, यह माता के लिए लज्जा की बात है। धिक्कार हे मुझे! मैं अपने बेटे को भरपेट खिला भी नहीं सकती!" संगम के मन में मुनि के कठोर तपस्वी जीवन के बारे में मंथन चल रहा था। भूख में खाने का विवेक न रहने से अधिक खीर खा लेने के कारण संगम के पेट में पीड़ा हुई और वह उसी रात को शुभध्यान में मृत्यु प्राप्त कर उसी नगर में गोभद्रसेठ के यहाँ भद्रा सेठानी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हआ। उसकी माता भद्रा ने उसके गर्भ में आते ही पके हुए शालिधान का खेत स्वप्न में देखा, इस कारण उसका नाम शालिभद्र रखा गया। बचपन पारकर जब शालिभद्र यौवन अवस्था में आया तो माता-पिता ने धनाढय सेठों की ३२ कन्याओं के साथ उसकी शादी कर दी। इसके बाद गोभद्रसेठ ने घर-बार छोड़कर मुनिदीक्षा ले ली और अंतिम समय में अनशन कर आयुष्य पूर्ण कर सौधर्म देवलोक में देव बनें। उन्होंने अवधिज्ञान से अपने पुत्र को देख अतीव स्नेहातुर होकर वहाँ आया और सबको दर्शन देकर भद्रा सेठानी से कहा- "मैं शालिभद्र के लिए सभी प्रकार की सुखभोग-सामग्री की पूर्ति करूँगा।'' इतना कहकर देव चला गया। गोभद्र का जीव देव रोजाना ३३ वस्त्रों की, ३३ आभूषणों की एवं ३३ भोजनादि पदार्थों की पेटियाँ यानी कुल ९९ पेटियाँ 3- 171
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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