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________________ श्री शालिभद्र की कथा श्री उपदेश माला गाथा ८५ शालिभद्र और उसकी ३२ पत्नियों के लिए भेजता था। यह सब संगम के भव में मुनि को दान देने का फल था। इसीलिए कहा है यद्गोभद्रः सूरपरिवृत्तो भूषणाद्यं ददौ यज् । जातं जायापदपरिचितं कम्बलिरत्नजातम् । पुण्यं यच्चाजनि नरपतिर्यच्च सर्वार्थसिद्धि । स्तदानस्याद्भूतफलमिदं शालिभद्रस्य सर्वम् ॥८६॥ अर्थात् - देवों में श्रेष्ठ गोभद्र ने जिसे आभूषण आदि दिये; जिसकी पत्नियों के पैरों में रत्नकम्बल लोटती हैं, जिसने इतना पुण्योपार्जन किया कि राजा श्रेणिक भी देखकर चकित रह गया और जिसने अंत में सर्वार्थसिद्ध देवलोक प्राप्त किया, यह सब शालिभद्र के दान का ही अद्भुत फल था।।८६|| पादाम्भोजरजःप्रमार्जनमपि मापाल-लीलावतीदुष्प्रापाद्भुतरत्नकम्बलदलैर्यद्वल्लभानामभूत्। निर्माल्यं नवहेममंडनमपि क्लेशाय यस्यावनिपालालिंगनमप्यसौ विजयते दानात्सुभद्राग्रजः।।८७।। अर्थात् - जिसकी सुकुमार प्रियतमाओं के चरणकमलों पर लगी धूल भी उन रत्नकम्बलों के टुकड़ों से पौंछी जाती थी, जो रत्नकम्बल राजा श्रेणिक की रानी लीलावती (चेल्लणा) को भी दुष्प्राप्य था। जिनके नये सोने के गहने भी एक बार पहनने के बाद गंदे समझकर भंडार में डाल दिये जाते थे, राजा श्रेणिक का आलिंगन भी खुदरा होने से जिसे कष्टदायक प्रतीत होता था, वह सुभद्रा का बड़ा भाई श्रीशालिभद्र दान के प्रभाव से ही विजयी-यशस्वी बना था ॥८७।। - शालिभद्र की वैभव समृद्धि देखकर श्रेणिक राजा ने साश्चर्य होकर उद्गार निकाले थेस्नुही महातरुर्वह्निर्वृहद्भानुर्यथोच्यते । सारतेजोवियोगेन नरदेवास्तथा वयम् ।।८८।। 'जैसे स्नुही वृक्ष छोटा-सा होते हुए भी महावृक्ष कहलाता है, तथा थोड़ी-सी अग्नि भी बृहत् (बड़ा) सूर्य कहलाता है' इसके सामने तेज रहित होने पर भी हम राजा कहलाते हैं ॥८८॥ शालिभद्र ने अपने घर पर राजा श्रेणिक को आये देख तथा माता के कहने से अपना स्वामी जानकर अंतर की गहराई में डूब कर चिन्तन किया'क्या मेरे पुण्य की इतनी कमी है कि मेरे सिर पर भी स्वामी है? मेरी लक्ष्मी भी पराधीन है? मुझे ऐसी करणी करनी चाहिए, जिससे मेरे पर भविष्य में कोई स्वामी न रहे।' बस, इसी विचार ने शालिभद्र को संसार से विरक्त कर डाला और वह प्रतिदिन एक-एक करके अपनी पत्नी को छोड़ने लगा। जब शालिभद्र के बहनोई धन्ना ने शालिभद्र के वैराग्य की तथा प्रतिदिन एक-एक स्त्री के त्याग की बात 172
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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