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श्री शालिभद्र की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ८५ शालिभद्र सेठ "मेरे पर भी और कोई स्वामी है" ऐसा जानकर विषय भोगों से विरक्त हो गया ।।८५।।
भावार्थ - मेरे सिर पर अभी तक दूसरा स्वामी है, यह बात लक्ष्य में आते ही 'यदि ऐसा ही है तो मेरे वैभव को धिक्कार है,' इस प्रकार का स्पष्ट विचारकर शालिभद्र ने विषय भोगों को छोड़ दिये और मुनि दीक्षा ले ली।
शालिभद्र की कथा जैनजगत् में प्रसिद्ध होने से यहाँ उसे संक्षेप में दे रहे हैं
श्री शालिभद्र की कथा शालि नाम के एक छोटे से गाँव में धन्या नाम की एक दरिद्र विधवा रहती थी। अपनी आजीविका के लिए उसने गाँव में रहना उचित न समझ अपने पुत्र-संगमको लेकर राजगृही नगरी में आकर रहने लगी। वहाँ सम्पन्न घरों में वह उनके घर का कामकाज कर देती और बदले में कुछ मेहनताना ले लेती। संगम गायों के बछड़ों को चरा लेता था। एक दिन कोई त्यौहार था, इसीलिए प्रत्येक घर में खीर बनी थी। यह देखकर संगम ने भी अपनी मां से खीर मांगी। माता विवश थी। वह कहाँ से खीर लाती। परंतु संगम का रोना सुनकर पड़ौस की उदार सेठानियां आयी, उन्होंने धन्या को समझाकर दूध, खांड, चावल आदि खीर बनाने की सामग्री धन्या को दी। वह सामग्री लेकर आयी। धन्या ने झटपट खीर बनायी और अपने बेटे की थाली में परोस दी। धन्या उसे यह कहकर गृहकार्य वश बाहर चली गयी कि 'जब ठंडी हो जाये, तब खा लेना।' संगम थाली की खीर ठंडी करने लगा। ठीक उसी समय मासिक उपवासी एक तपस्वी मुनि पारणे के लिए भिक्षार्थ वहाँ पधारें। मुनि को देख संगम को अत्यंत खुशी हुई। उसने भाव पूर्वक सारी खीर मुनि के भिक्षापात्र में उडेल दी। मुनि के चले जाने पर वह सोचने लगा-'आज मेरा अहोभाग्य है कि ऐसे सुपात्र साधु के दर्शन हुए और मुझे भी कुछ देने का लाभ मिला।' इस प्रकार दान और दानपात्र की प्रशंसा करने लगा। ऐसी अनुमोदना सहित दिया हुआ दान वास्तव में महान् फलदायी होता है। कहा भी है
__ आनन्दाश्रूणि रोमाञ्चो बहुमानं प्रियं वचः ।
किञ्चानुमोदना-पात्र-दान-भूषणपञ्चकम् ।।८३।। ___अर्थात् - "सुपात्रदान के पाँच भूषण है-१. दान देते समय आनंद से आँखों में आँसू उमड़ना, २. रोमाञ्च खड़े हो जाना, ३. बहुमानपूर्वक दान देना, ४. प्रियवचनपूर्वक दान देना और ५. दिये हुए दान की अनुमोदना करना।'' ॥८३||
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