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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५६ श्री स्थुलभद्र मुनि की कथा गिरौ गुहायां विजने वनान्तरे, वासं श्रयन्तो वशिनः सहस्रशः । हर्म्यति रम्ये युवतीजनान्तिके वशी स एकः शकडालनन्दनः ।।७४॥ ___ अर्थात् - पर्वत पर, गुफा में, निर्जन वन में निवास करके इन्द्रियों को वश में करने वाले तो हजारों हैं, मगर अत्यंत रमणीय महल में मनोज्ञ सुंदरी के पास में रहकर इन्द्रियों को वश करने वाले तो वही एक शकडालपुत्र-स्थूलभद्र-है ॥७४|| योऽग्नौप्रविष्टोऽपि हि नैव दग्धश्छिन्नो न खङ्गाग्रकृतप्रचारः । कृष्णाहिरन्ध्रेऽप्युषितो न दष्टो नोऽक्तोंऽगनागारनिवास्यहो य: ॥७५।। अर्थात् - जो अग्नि में कूद पड़ने पर भी नहीं जला, तलवार की तीखी धार पर चल कर भी कटा नहीं, भयंकर काले सांप के बिल में रहने पर भी सांप ने जिसे डसा नहीं; तथा सुंदरीजनों के मकान में रहकर भी निष्कलंक रहा, वह तो एक स्थूलभद्र ही है ॥७५॥ वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भी रसैर्भोजनम् । शुभ्रं धाममनोहरं वपुरहो नव्यो वय: सङ्गमः ॥ कालोऽयं जलदाविलस्तदपि य: कामं जिगायादरात् । तं वन्दे युवतीप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ।।७६।। अर्थात् - वेश्या जिन पर अत्यंत मुग्ध थी, सदैव आज्ञा में रहने को तत्पर थी, षड्रसों से युक्त स्वादिष्ट भोजन मिलता था, मनोज्ञ नयनाभिराम प्रासाद था, सुंदर शरीर था, नई उम्र का संगम था और कामोत्तेजक वर्षाकाल था, फिर भी जिसने अत्यंत श्रद्धा पूर्वक काम को जीत लिया; युवती को प्रबोधित करने में • कुशल उन मुनि स्थूलभद्र को मैं वंदन करती हूँ ॥७६।। रे काम! वामनयना तव मुख्यमस्त्रं, वीरा वसन्तपिक-पञ्चम-चन्द्रमुख्याः । तत्सेवका हरिविरञ्चिमहेश्वराद्या, हा हा! हताश! मुनिनाऽपि कथं हतस्त्वम् ।।७७|| अर्थात् - हे कामदेव! सुंदर नेत्रों वाली ललना तेरा मुख्य अस्त्र है, वसंत ऋतु, कोयल की मधुर टेर, पंचमस्वर और चन्द्रमा आदि तेरे मुख्य सुभट हैं; और विष्णु, ब्रह्मा और महेश्वर आदि तेरे सेवक हैं, अफसोस है, फिर भी ऐ निराश! एक मुनि ने तुझे कैसे पछाड़ डाला? ॥७७।। श्रीनन्दिषेण-रथनेमि-मुनीश्वरार्द्रबुद्ध्या त्वया मदन रे! मुनिरेष दृष्टः । ज्ञातं न नेमिमुनिजम्बूसुदर्शनानाम्, तुर्यो भविष्यति निहत्य रणाङ्गणे माम्।।७८।। अर्थात् - अरे मदन! तूने इन स्थूलभद्र मुनि को भी अपनी बुद्धि से नंदिषेण, रथनेमि या आर्द्रककुमार मुनि समझ लिया होगा! तूने यह नहीं समझा कि - 155
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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