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________________ श्री स्थुलभद्र मुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ५६ बिताकर गुरुदेव आचार्य सम्भूतिविजय के पास पहुंच चुके थे। सबके पश्चात् स्थूलिभद्र मुनि वेश्या को प्रतिबोध देकर चातुर्मासयापन करके पहुँचे। गुरुदेव ने तीनों मुनियों को एक बार 'दुष्कर कार्य किया' इतना कहकर सम्मानित किया, लेकिन जब स्थूलभद्र गुरुचरणों में पहुँचे तो उन्हें आदरपूर्वक तीन बार 'दुष्कर कार्य किया है,' ऐसा कहा। इससे ओर शिष्य तो संतुष्ट हो गये, लेकिन सिंहगुफा में चातुर्मास बिताने वाले साधु के मन में गुरु के इस अंतर पर मन ही मन रोष उमड़ा और ईर्ष्या जागी कि गुरुजी के विवेक को तो देखो। हम तीनों भूख और प्यास आदि से पीड़ित रहे, हमने भयंकर स्थानों पर रहकर सर्दी-गर्मी-बरसात के परिषह सहे, लेकिन गुरुजी ने हमें केवल एक ही बार 'दुष्कर किया' इतना कहा; जबकि जिसने वेश्या के मोहोत्पादक महल में रहकर सोने-से दिन और चांदी-सी रातें काटी, षड्रसयुक्त स्वादिष्ट पकान और भोज्यपदार्थ खाये, आमोद-प्रमोद, रागरंग में दिन बिताये, उस स्थूलभद्र मुनि को तीन बार दुष्कर-दुष्कर-दुष्कर कहा। यह गुरुजी का पक्षपात है।" वह ईर्ष्यालु बनकर मन में गांठ बांधकर बैठ गया। ___ इधर कोशा वेश्या के यहाँ नंदराजा की आज्ञा से एक दिन एक रथकार आया। वह बाण चलाने में बड़ा निपुण था। उसने गवाक्ष में बैठे-बैठे ही बाणविद्या की कला से आम के पेड़ में लगे हुए पक्के आमों का एक गुच्छा तोड़कर कोशा को भेट किया। यानी उसने इस खूबी से बाण चलाया कि बाण आम की डाली पर जाकर लगा फिर दूसरा बाण उस बाण में लगा और दूसरे के मूल में तीसरा बाण संलग्न हो गया और अंतिम बाण से उसने आमों का गुच्छा तोड़कर नीचे गिरा दिया। अपनी बाणचालन कला से रथकार गर्वोन्मत हो रहा था। यह देखकर कोशा ने भी अपने घर के आंगन में सरसों का ढेर लगवाया, उस पर तीखी सुइयां खड़ी करवाई' और प्रत्येक सुई की नोक पर एक-एक फूल रखवाया। उस पर स्वयं ने कलापूर्वक नृत्य किया। रथकार यह नृत्य देखकर आश्चर्यचकित हो गया, उसका गर्व चूर-चूर हो गया। सहसा उसके मुंह से उद्गार निकले-"कोशा! सचमुच तुमने अतिदुष्कर कार्य किया है।' इसके उत्तर में कोशा ने मुनि स्थूलभद्र के दुष्करतम कार्य की प्रशंसा करते हुए कहा न दुक्करं अम्बयलुम्बतोडणं, न दुक्करं सरिसवनच्चियाए। तं दुक्करं तं च महाणुभावं जं सो मुणी पमयवर्णमि अमुच्छो ।।७३।। अर्थात् - आमों का गुच्छा तोड़ना कोई दुष्करकार्य नहीं, और न सरसों पर नाचना भी दुष्कर है; दुष्कर तो वह है, जिसे महानुभाव स्थूलभद्र-मुनि ने प्रमदा (सुंदरी) रूपी अटवी में भी अमूर्छित रहकर किया है ।।७३।। 154
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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