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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५६ श्री स्थुलभद्र मुनि की कथा ही मनुष्य को छोड़कर चले जाते हैं। तब फिर विषयों के वियोग में और उन्हें स्वेच्छा से छोड़ने में अंतर ही क्या रहा? यदि मनुष्य विषयों को स्वयं नहीं छोड़ता है तो एक दिन विषय उसे स्वयं छोड़कर चले जाते हैं; परंतु वे मनुष्य के मन में अत्यंत परिताप पैदा कर जाते हैं। मगर जो मनुष्य स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक इन विषयों को छोड़ देता है, तो वे उसे असीम मोक्ष-सुख उत्पन्न करा देते हैं ॥७१॥ "इसीलिए भद्रे! सांप की कांचली के समान विषयों को स्वेच्छा से छोड़कर शील-रूपी आभूषण से अपने अंग सुसज्जित कर। धर्माचरण के बिना नष्ट किया हुआ मनुष्य-जन्म पुनः प्राप्त करना अति-कठिन है। धर्माचरण का कार्य ही सब कार्यों में उत्तम कार्य है।" कहा भी है न धम्मकज्जा परमत्थि कज्जो, न पाणिहिंसा परमं अकज्जं । न पेमरागा परमत्थि बंधो, न बोहिलाभा परमत्थि लाभो ॥७२।। अर्थात् - धर्मकार्य से बढ़कर कोई भी कार्य संसार में नहीं है; प्राणिहिंसा से बढ़कर कोई अकार्य नहीं है, प्रणय-राग (कामासक्ति) से उच्चतम कोई बंधन नहीं है और बोधि-लाभ से उत्कृष्ट कोई लाभ नहीं है।।७२॥ इस प्रकार का वैराग्यमय उपदेश सुनकर कोशा का अंतर्मन जागृत हो गया। उसका हृदय अब प्रणयरस के बजाय वैराग्यरस के समुद्र में डुबकियां लगाने लगा। सांसारिक विषयभोग उसे अब फीके और निःसार मालूम होने लगे। बरबस कोशा के मुंह से उद्गार निकले "धन्य हो कामविजेता! धर्मशासन के उद्योतकर्ता! एवं मिथ्यात्वतिमिरविध्वंसक! आपने जीवन का वास्तविक फल पाया है। मैं अधन्य हूँ, अभागी हूँ, मैंने अज्ञान और मोह के वशीभूत होकर आपको काम के जाल में फंसाने और आपको संयममार्ग से चलायमान करने के भरसक प्रत्यन कर लिये, परंतु आप मेरुपर्वत के समान अचल रहे, जरा भी विचलित न हुए। आपकी तरह महाव्रतधारिणी साध्वी बनने की शक्ति तो इस समय मुझमें नहीं है; लेकिन मैं आपसे गृहस्थ श्रावक के लिए आचरणीय सम्यक्त्व सहित १२ व्रतों को अंगीकार करना चाहती हूँ।" कोशा श्रावकधर्म लेकर वाराङ्गना से वराङ्गना (श्रेष्ठमहिला) बनी। उसने चतुर्थअणुव्रत इस प्रकार से ग्रहण किया कि "मैं आज से राजा के द्वारा भेजे गये खास पुरुष के सिवाय अन्य किसी भी पुरुष का मन-वचन-काया से सहवास की दृष्टि से स्वीकार नहीं करूंगी।" कोशा अब पापात्मा से पुण्यात्मा, धर्मपरायण और जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वों की जानकार बन गयी। स्थूलभद्र मुनि के तीनों गुरुभ्राता अलग-अलग स्थानों में चातुर्मास 153
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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