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________________ उत्कृष्ट क्षमा धारक गजसुकुमार की कथा श्री उपदेश माला गाथा ५५ श्रीकृष्णजी ने प्रसन्न होकर माता को यह खुशखबरी सुनाई। देवकी रानी गर्भवती हुई। उसने सिंह का स्वप्न देखा । तदनुसार गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक सुंदर सुकुमार पुत्र को जन्म दिया। जन्मोत्सव खूब धामधूम से मनाया गया। उसका नाम रखा गया - गजसुकुमार । गजसुकुमार जब कुछ बड़ा हुआ तो एक दिन श्रीकृष्णजी के साथ भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ जा रहा था। रास्ते में श्रीकृष्णजी ने सोमिल ब्राह्मण की तेजस्वी कन्या को देखकर अपने छोटे भाई गजसुकुमार के साथ विवाह संबंध के लिए उसके पिता से याचना करके कुमारिकाओं के अन्तःपुर में रख देने का आदेश अपने विश्वासी सेवक को दिया। सेवक ने सोमिल ब्राह्मण से पूछकर आदेश का यथावत् पालन किया। श्रीकृष्णजी और गजसुकुमार भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में पहुँचकर उनका वैराग्यमय प्रवचन सुनने लगे। प्रवचन सुनकर गजसुकुमार का मन वैराग्यसागर में डुबकियाँ लेने लगा। घर आकर माता-पिता और बड़े भाई श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर गजसुकुमार ने भगवान् अरिष्टनेमि से मुनिदीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ली उसी दिन वे भगवान से १२ वीं भिक्षुप्रतिमा अंगीकार कर उनकी आज्ञा से महाकाल स्मशान में जाकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। 1 संयोगवश सोमिल ब्राह्मण भी होम के लिए इन्धन आदि लेने वहाँ आया। गजसुकुमार मुनि को देखते ही वह आगबबूला होकर मन ही मन बड़बड़ाने लगा - " धिक्कार है इस दुष्ट को! यह मेरी निर्दोष पुत्री को निराधार छोड़कर साधु बन गया है! अभी मजा चखाता हूँ, इसे अपनी दुष्टता का!" इस प्रकार द्वेष वश सोमिल ने एक ठीकरे में जलते अंगारे उठाए और गजसुकुमार मुनि के मस्तक पर चारों ओर मिट्टी की पाल बांधकर उन्हें रख दिये। मुनि का मस्तक असह्य ताप से जल उठा, परंतु उन्होंने उफ तक न किया और न ही सोमिल पर जरा-सा भी क्रोध किया। इस अपूर्व क्षमा के कारण शुक्लध्यानरूपी अग्नि में अपने समस्त कर्मों को क्षय करके अंतकृत् केवलज्ञानी होकर वे मोक्ष में पहुँचे। "" दूसरे दिन श्रीकृष्णजी अपने लघुभ्राता मुनि और भगवान् अरिष्टनेमि के वंदनार्थ आये। उन्होंने आते ही भगवान् से पूछा - "भगवन्! मेरे लघुभ्राता मुनि गजसुकुमार कहाँ हैं?" भगवान् ने बताया- 'श्रीकृष्ण ! उसने अपना समस्त कार्य सिद्ध कर लिया है। " श्रीकृष्णजी द्वारा पूछने पर भगवान् ने सारी घटना कही । श्रीकृष्णजी को इससे बड़ा धक्का लगा। सोचने लगे - "मेरे राज्य में मेरे होते हुए भी एक मुनि की हत्या ! यह तो मेरे लिये सरासर कलंक है। " भगवान् से उन्होंने पूछा - "प्रभो ! ऐसा कौन दुष्ट था, जिसने मुनि हत्या का कुकर्म किया?" भगवान् 146 -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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