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श्री उपदेश माला गाथा ५६-५८ उत्कृष्ट क्षमा धारक गजसुकुमार की कथा ने उन्हें शांत होने तथा एक बूढ़े पर अनुकंपा कर उसकी ईटें उठाने की सहायता की तरह एक परमसिद्धि प्राप्त करने में सहायता देने की बात कही। श्रीकृष्णजी ने जब पूछा कि-"मैं उसे कैसे जान पाऊंगा? भगवान् ने कहा-"तुम्हें देखकर जो भय के मारे धड़ाम से गिर पड़े और हृदय फटकर मर जाय; तुम जान लेना कि यह वही है।" श्रीकृष्ण शोकमग्न होकर वापिस अपने राजमहल की ओर लौट रहे थे कि सोमिल सामने से आता हुआ मिला, श्रीकृष्णजी को देखते ही अत्यंत भयाकुल होकर वह वहीं धड़ाम से गिर पड़ा और हृदय फट जाने से वहीं खत्म हो गया। ऋषि हत्या के फल स्वरूप मरकर वह सातवीं नरक में पहुंचा।
जिस प्रकार धैर्यवान गजसुकुमार मुनि ने मरणांत कष्ट आ पड़ने पर भी अत्यन्त क्षमा धारण की; उसी तरह आत्मार्थी साधुओं को सकल सिद्धि प्रदायिका क्षमा धारण करनी चाहिए ।।५५।।
इस कथा का यही सार है। रायकुलेसुऽवि जाया, भीया जर-मरण-गब्भवसहीणं ।
साहू सहति सव्यं, नीयाण वि पेसपेसाणं ॥५६॥
शब्दार्थ - राजकुल में उत्पन्न होकर भी बुढ़ापा, मृत्यु, गर्भ आदि के दुःखों से भयभीत साधु नीचकुल में पैदा हुए नादान नौकर के दुर्वचन आदि उपसगों को समभाव पूर्वक सहते हैं, उसी प्रकार सभी संयमी साधुओं को क्षमाशील बनकर सहन करना चाहिए ।।५६।।
पणमंति य पुचयरं, कुलया न नमंति अकुलया पुरिसा । पणओ इह पुब्बिं जड़ जणस्स जह चक्कयट्टीमुणी ॥५७॥
शब्दार्थ- कुलीन पुरुष पहले नमस्कार करते हैं, किन्तु अकुलीन पुरुष नहीं। जैसे चक्रवर्ती मुनि बन जाने पर पूर्व दीक्षित मुनियों को नमस्कार करता है। अर्थात् चक्रवर्ती ६ खण्ड की राज्य-ऋद्धि छोड़कर भी गर्वोद्धत नहीं होता; अपितु मुनि बन जाने पर वह पहले अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनियों को नमन करता है।।५७।।
जह चक्कवट्टीसाहू, सामाइय साहूणा निरुवयारं । भणिओ न चेव कुविओ, पणओ बहुयत्तणगुणेणं ॥५८॥
शब्दार्थ - चक्रवर्ती मुनि जब ज्येष्ठमुनि को सरलता से प्रथम वंदन नहीं करता तो सामान्य साधु उसे कठोर शब्दों या तुच्छ शब्दों से कहे कि 'तूं अपने से दीक्षापर्याय में बड़े साधु को वंदना क्यों नहीं करता?" इस पर भी चक्रवर्ती मुनि उस
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