SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री उपदेश माला गाथा ५५ उत्कृष्ट क्षमा धारक गजसुकुमार की कथा लिए एक देव उन्हें तुम्हारे पास से उठाकर नागगाथापति की पत्नी सद्यः प्रसवा सुलसा के पास रख देता था, और उसके मृतपुत्रों को उठाकर तुम्हारे पास रख देता था। यही कारण है कि ये तुम्हारे पुत्र सुलसा के यहाँ सुरक्षित रहे और वहीं इनका पालन-पोषण हुआ; यौवन अवस्था होने पर उन्होंने ही (पालक माता पिता ने ) ३२-३२ कन्याओं के साथ प्रत्येक की शादी की। किन्तु मेरा उपदेश सुनकर इन्हें संसार से वैराग्य हो गया और छहों भाइयों ने एक साथ घरबार छोड़कर मेरे पास दीक्षा ले ली। दीक्षा लेने के बाद ये दो-दो उपवास के अनंतर पारणा करते हैं। कल पारणा था, इसीलिए मेरी आज्ञा से ये तीन गुटों में विभक्त होकर पृथक्-पृथक् भिक्षा के लिए गये थें, वे तीनों गुट अनायास ही तुम्हारे पास पहुँच गये थें। तुम्हारे साथ माता-पुत्र का संबंध होने के कारण तुम्हारे हृदय में वात्सल्य उमड़ा था । " भगवान् के वचन सुनकर देवकी विविध विचारों के झूलती हुई हर्षोत्फुल्ल होकर महल में पहुँची। परंतु भगवान् के वचन याद आते ही अनमनी-सी होकर चिंतासागर में गोते लगाने लगी- " वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं, जो अपने नन्हें-नन्हें मुन्नों को स्तनपान कराती है, कोमल हाथ फिराती है, उनके तुतलाते हुए मधुर वचन सुनती है, उन्हें अपनी गोद में बिठाती है, दुलार करती है, पुचकारती है और उन्हें खेलाती हैं, मैं तो बिलकुल अधन्या और पुण्यहीन हूँ; क्योंकि मैंने सात-सात पुत्रों को जन्म दिया, परंतु एक का भी इस तरह लालन-पालन नहीं किया। ये ६ तो सुलसा के यहाँ पले और श्रीकृष्ण जन्म लेते ही नंद की पत्नी यशोदा के यहाँ गोकुल भेज दिया गया था, वहीं यह पला! हाय! मैं कितनी अभागिनी हूँ। दुनिया में मेरे समान कौन माता अभागी और पुण्यहीन होगी?" ठीक उसी समय श्रीकृष्णजी माता देवकी के चरणों में प्रणाम करने आये, परंतु माता को अत्यंत चिंतातुर देखकर उन्होंने चिंता का कारण पूछा। श्रीकृष्ण के अनुरोध पर देवकी ने अपनी सारी आपबीती और चिंता बता दी। माता की चिंता दूर करने के लिए श्रीकृष्णजी ने पौषधशाला में अट्ठम (तेले का) तप किया और हरिणैगमैषी देव की आराधना की। देव ने सेवा में उपस्थित होकर स्मरण करने का कारण पूछा तो श्री कृष्णजी ने माता की चिंता का निवारण करने में सहायता करने का कहा। देव ने ज्ञान में देखकर उन्हें कहा - "देवलोक से आयुष्य पूर्णकर एक भाई तुम्हारी माता की कुक्षि से जन्म लेगा, परंतु जवानी में कदम रखते ही वह विरक्त होकर दीक्षा ले लेगा। " 1. एक कथानक में विहार कर पुनः द्वारिका में आने के पश्चात् कायोत्सर्ग का वर्णन आता है। 145
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy