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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५५ उत्कृष्ट क्षमा धारक गजसुकुमार की कथा में वरमाला डाली। यादवकुमारों ने नीचजाति का समझकर इसके साथ युद्ध किया। मगर युद्ध में भी अपना जौहर दिखाकर वसुदेव ने अपना स्वरूप प्रकट किया। इससे समुद्रविजय आदि को बहुत ही आनंद हुआ। आश्चर्यपूर्वक लोग कहने लगे"वसुदेव के पूर्व पुण्यराशि की ही प्रबलता है; जिसके कारण इसने इतने चमत्कार दिखाये।'' वहाँ से वसुदेव अपने स्वजनों के साथ सौरीपुर आया। अंत में देवकराजा की पुत्री देवकी के साथ विवाह हुआ। देवकी की कुक्षि से उनके श्रीकृष्ण वासुदेव नामक महाप्रतापी पुत्र हुए। और उनके पुत्र शाम्ब, प्रद्युम्न आदि हुए। इसी कारण वसुदेव हरिवंश के पितामह कहलाते थे। वसुदेव को यह सब फल पूर्वजन्म में आचरित साधुधर्म, वैयावृत्य रूप आभ्यंतर तप और छट्ठ (बेला) अट्ठम (तेला) आदि बाह्यतप के कारण मिला था। इसी प्रकार अन्य साधुओं को भी तपश्चरण में पुरुषार्थ करना चाहिए ॥५४॥ सपरक्कम राउलवाइएण, सीसे पलीविलिए नियए । गयसुकुमालेण खमा, तहा क्या जह सिवं पत्तो ॥५५॥ शब्दार्थ - पराक्रमी श्रीकृष्ण वासुदेव के छोटे भाई गजसुकुमार; (जिसका बड़ी अच्छी तरह से लालन पालन हुआ था) मुनि के मस्तक पर जलते हुए अंगारे रखे गये। फिर भी उन्होंने ऐसी उत्कृष्ट क्षमा धारण की, जिससे शीघ्र मोक्ष प्रास किया।।५५।। प्रसंगवश यहाँ गजसुकुमार मुनि की कथा दे रहे हैं श्री गजसुकुमार मुनि की कथा द्वारका नगरी में राजा श्री कृष्ण वासुदेव राज्य करते थे। उनकी माता का नाम देवकी था। एक बार भगवान् श्री अरिष्टनेमि वहाँ पधारें। देवों ने आकर समवसरण रचा। भगवान् ने दर्शनार्थ आये हुए श्रोताओं को उपदेश दिया। जिसे सुनकर हर्षित होकर सभी अपने-अपने घर को लौटे। भद्दिलपुरनगर के एक साथ मुनि धर्म में दीक्षित ६ मुनि भ्राता भगवान् से अनुमति लेकर छट्ठतप (बेले) के पारणे के लिए दो-दो के समूह से नगरी में भिक्षा के निमित्त गये। उनमें से प्रथम गुट के दो मुनि घूमते-घूमते महारानी देवकी के यहाँ पहुँचे। मुनियों को देखकर देवकी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह उन्हें भोजनगृह में ले गयी और उन्हें बड़ी भावना से मोदक भिक्षा के रूप में दिये। उन दो मुनियों के चले जाने के कुछ ही देर बाद संयोगवश दूसरा दो मुनियों का गुट भी वहीं पहुँचा। देवकी महारानी ने उन्हें भी उसी भावना से मोदक दिये। उनके चले जाने के कुछ ही समय पश्चात् तीसरा मुनिद्वय का गुट भी अनायास ही वहीं पहुँच गया। तब देवकी ने विचार 143
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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