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________________ नंदीषेण की कथा श्री उपदेश माला गाथा ५४ आवश्यक काम छोड़कर भी उसके पीछे-पीछे घूमने लगती। क्लवती लज्जाशील महिलाओं ने भी अपना कुलाचार छोड़ दिया। कई धर्मभ्रष्ट भी होने लगी। कुलांगनाओं को आचार-भ्रष्ट होते तथा इस प्रकार वसुदेव के रूप पर पागल देख नागरिकजनों ने समुद्रविजय नृप से अर्ज की-"स्वामिन्! हमारी गहिणियाँ वसुदेव के रूप पर फिदा होकर घर का काम छोड़ बैठती हैं तथा कुलाचार आदि को भी तिलांजलि दे देती हैं। अतः आप वसुदेवकुमार को कहीं बाहर न घूमने दें। अन्यथा, समस्त कुलांगनाएं धीरे-धीरे आचार छोड़ बैठेंगी। अगर आप इस अनाचार को न रोकेंगे तो इसका सारा दोष आपके सिर पर होगा।" समुद्रविजयजी को यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने वसुदेव को बुलाकर हितशिक्षा देकर महल में ही रखा। वहीं उसे विद्याएं-कलाएं सिखाने लगे। एक बार गर्मी की मौसम में गर्मी को शांत करने के लिए गोशीर्ष चंदन घिसकर महारानी शिवादेवी ने उसे कटोरे में भर कर दासी के साथ महाराजा समुद्रविजयजी के लिए भेजा। परंतु रास्ते में दासी से हाथ से कटोरा झपट कर वसुदेव ने अपने शरीर पर उस चंदन का लेप कर लिया। इससे दासी ने गुस्से में आकर कहा- "तुम ऐसी नाजायज हरकतें करते हो, इसीलिए बंदीखाने में रखे गये हो।'' वसुदेव ने कुछ विश्वस्त व्यक्तियों से पिछली सारी घटनाएँ सुनी तो वह झुंझला उठा और पिछली रात्रि को युक्तिपूर्वक अकेला नगर से बाहर निकल गया। फिर मरघट से किसी मुर्दे को चुपके से उठा लाया और नगर के सदर दरवाजे के पास लाकर उसे फूंक दिया। वहाँ उसने अपने हाथ से लिख दिया- "वसुदेव यहाँ जल मरा है। इसीलिए नगर के लोग अब निश्चिंतता पूर्वक सुख से रहें।" नंदीषण इस प्रकार लिखकर उस नगर को छोड़कर चल दिया। प्रात:काल राजा समुद्रविजयजी को जब इस बात का पता लगा तो वे शोकमग्न हो गये। सोचने लगे-"बड़ा आश्चर्य होता है कि सुकुलोत्पन्न होकर भी वसुदेव ने दुष्कुलोचित आचरण किया और स्वयं ही स्वेच्छा से इस संसार से चला गया। मगर अब क्या किया जाय? निरुपायता है! जो होने वाला होता है, वह होकर ही रहता है।" इस प्रकार मन को आश्वस्त किया। वसुदेव भी विभन्न देशों में नये-नये रूपों, वेशों और आचारों को धारण करके १२० वर्ष तक पर्यटन करता रहा। विभिन्न देशों में घूमते हुए प्रबल भाग्योदय एवं रूपलक्ष्मी के कारण विद्याधरों, राजाओं तथा अन्य वर्णों की ७२००० कन्याओं के साथ वसुदेव ने पाणिग्रहण किया। राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में कुबड़ा रूप धारण करके गया, फिर भी राजकुमारी ने रूप से आकर्षित होकर वसुदेव के गले 142
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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