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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५४ नंदीषेण की कथा निकली - " इन मुनि को मेरे निमित्त से आज बहुत कष्ट हुआ है! अतः शीघ्र ही ये स्वस्थ हो जाय तो मेरा श्रम सार्थक हो।" फिर तुरंत ही वे रुग्ण मुनि से पुनः क्षमायाचना करते हुए बोले- "मुनिवर ! आप जरा भी न घबराएँ! मैं आपको बहुत अच्छी तरह उपाश्रय पहुँचाऊँगा । " यों कहकर आगे चल पड़े। मुनिवेशी देव गद्गद् होकर सोचने लगा- " धन्य है इस सेवाभावी मुनि को! मैंने इन्हें इतना डांटाफटकारा, इतना कष्ट दिया; फिर भी ये अपने सेवाव्रत से जरा भी विचलित न हुए। अतः इन्द्र का कथन अक्षरशः सत्य है।" इस तरह विचारकर दोनों देवों ने अपना वैक्रिय से बनाया हुआ रूप समेट लिया और असली देव रूप में नंदीषेण मुनि के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये। कहने लगे- 'धन्य हो मुनिवर ! आपकी आत्मा पवित्र है! इंन्द्र ने आपकी सेवावृत्ति की जैसी प्रशंसा की थी, वैसे ही गुण आप में हमने पाये। सचमुच, आप क्रोधादि - कषायों को जीतकर और अपनी इन्द्रियों का दमन करके सेवानिष्ठा में उत्तीर्ण हुए हैं। हमने आपको बहुत कष्ट दिया; हमारे अपराध क्षमा करें। " यों बार-बार उनकी प्रशंसा करके तथा उनके चरणों में नमस्कार करके दोनों देव अपने स्थान को लौट गये। देव प्रभाव से नंदीषेण मुनि के शरीर पर गोशीर्षचन्दन का लेपन हो गया था। उसके पश्चात् चिरकाल तक वैयावृत्य, अभिग्रहतप तथा अनेक प्रकार के दुष्कर तप करते हुए नंदीषेण मुनि ने १२ हजार वर्ष तक चारित्र पालन किया। अंतिम समय में उन्होंने दर्भासन पर बैठकर चारों ही आहार और अठारह ही पापस्थानों के त्यागरूप अनशन (संल्लेखना - संथारा ) स्वीकार किया। कर्मोदय -वश उस दौरान नंदीषेण मुनि ने अपने पूर्व दुर्भाग्यपूर्ण गार्हस्थ्यजीवन का स्मरण करके इस प्रकार का निदान कर लिया - " इस तप और चारित्रादि के फलस्वरूप आगामी जन्म में मैं नारी-वल्लभ बनूं।" निदान सहित वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर वे ८ वें (सहस्र ार) देवलोक में पहुँचे। देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर नंदीषेण के जीव ने सौरीपुर नगर में अंधकविष्णु राजा की सुभद्रारानी की कुक्षि में पुत्र रूप से जन्म लिया। नाम रखा गया - वसुदेव। समुद्र - विजय आदि ९ वसुदेव से बड़े भाई थें । पूर्वजन्म में किये हुए निदान ( दुःसंकल्प) के फल स्वरूप वसुदेव अत्यंत सुंदर, सलौना, भाग्यशाली और लोकप्रिय था। साथ ही वह नगर में अपनी इच्छा से बेखटके घूमा करता था। लाड़ला होने के कारण उसे कोई कुछ भी नहीं कहता था। उसका कामदेव - सा सुंदर रूप देखकर ललनाएँ मोहित हो उठतीं और अपने घर के 1. एक कथा में पंचावन हजार वर्ष का आयुष्य भी लिखा है। 141
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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