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नंदीषण की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ५४ बनाया और नगरी के बाहर उद्यान में लेट गया; और दूसरा देव मुनि का रूप धारण कर वहाँ पहुँचा, जहाँ नंदीषण मुनि अभी पारणा करने के लिए बैठे ही थे। मुनि नंदीषेण पहला कौर मुंह में रखने वाले ही थे कि मुनि रूपधारी देव ने कहा
"अरे नंदीषेण! वैयावृत्य करने वाले साधु के नाम से तुम्हारी बड़ी प्रसिद्धि है, परंतु मेरे गुरु नगरी के बाहर उद्यान में अतिसार रोग से पीड़ित पड़े हैं और तुम यहाँ मजे से निश्चिंत होकर आहार कर रहे हो!"
यह सुनते ही तुरंत नंदीषेण ने हाथ में लिया हुआ कौर वहीं रख दिया और आहार पर वस्त्र ढांककर देव मुनि के साथ नगरी के बाहर चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर मुनि वेशी देव ने कहा
___ "अरे मुनि! पहले इनका मल से भरा शरीर साफ करने के लिए प्रासुक पानी तो ले आओ।' नंदीषेण मुनि पानी के लिए पात्र लेकर वापिस नगर में आये। कई घरों में घूमे, परंतु जहाँ भी जाते वहाँ देवमाया के कारण प्रासुक एषणीय निर्दोष जल नहीं मिलता। दूसरी बार वे फिर नगरी में प्रासुकजल के लिए घूमे, मगर फिर भी देव के उपरोध के कारण न मिला। मुनि ने हिम्मत न हारी। तीसरी बार फिर निर्दोष जल लेने के लिए नगरी में घूमने लगे। इस बार लाभांतराय कर्म के क्षयोपशम की प्रबलता से और अपनी तपोलब्धि के कारण देव का उपरोध हट जाने से नन्दीषेण मुनि को प्रासुकजल मिला। वे उस जल को लेकर देव मुनि के साथ सीधे रुग्ण मुनि के पास वन में आये। आते ही रुग्ण मुनि ने नंदीषेण मुनि को अत्यंत कठोर वचन कहे। लेकिन नंदीषेण मन में जरा भी क्रोध कलुषित नहीं हुए। उन्होंने अपना ही दोष माना और रुग्णमुनि से कहा- "मुनिराज! मेरे अपराध क्षमा करें। मुझ से भूल हो गयी है।" इसके पश्चात् उन्होंने गंदगी से लिपटा हुआ रुग्ण मुनि का शरीर जल से धोकर साफ किया और उनसे प्रार्थना की"स्वामीनाथ! आप उपाश्रय में पधारें, जहाँ औषध आदि लेने से आपका रोग शांत हो जायगा।" रुग्ण मुनि वेशी देव-"भाई! उपाश्रय तक चलने की शक्ति मुझ में कहाँ है? मैं चलने में असमर्थ हूँ।" नंदीषेण मुनि ने विनयपूर्वक उन्हें समझाकर अपने कंधे पर बिठाया और चल पड़ा। रास्ते में रुग्ण मुनि ने नंदीषेण पर अत्यंत बदबूदार अशुचि (विष्टा) कर दी। साथ ही कठोर शब्दों में डांट फटकार की बौछार की-"अरे भाई! तुम अत्यंत जल्दी-जल्दी चल रहे हो, इससे मुझे बहुत कष्ट होता है। मुझे कष्ट देने के लिए क्यों लाये? इससे तो वहीं पड़ा रहता तो अच्छा था!'' इस प्रकार के कठोर उपालंभ के बाबजूद भी नंदीषण ने जरा भी नाक-भौं नहीं सिकोड़ी; उलटे उनके मन में तीव्रतर शुभभावों की धारा फूट
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