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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५४ नंदीषेण की कथा अर्थात् - 'अप्रतिष्ठान नामक सातवें नरक में कुल ५ करोड ६८ लाख ९९ हजार ५८४ व्याधियां हैं।' ॥६४।। ये व्याधियां तो सिर्फ नारकीय जीवों को विपाकोदय होने पर होती है; अन्य जीवों को नहीं। परंतु मनुष्य शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम होते हैं। प्रत्येक रोमराजि पर पौने दो व्याधियां हैं। इससे अनुमान लगा लो, मानवशरीर कितनी व्याधियों से घिरा हुआ है। अतः इस शरीर का सार यही है कि मनुष्य इस दुर्लभ अनित्य मानवशरीर को धर्माचरण, तपश्चरण आदि में लगाये। धर्माचरण के बिना मनुष्य शरीर निरर्थक है। कहा भी है संसारे मानुष्यं सारं मानुष्ये च कौलिन्यम् । कौलिन्ये च धर्मित्वं, धर्मित्वे चापि सदयत्वम् ॥६५।। 'संसार में सार मनुष्य जन्म की प्राप्ति है, मनुष्य जन्म का सार है कुलीनता, कुलीनता के होने पर धर्माचरण सार रूप है और धर्माचरण में भी दयायुक्त होना सारभूत है।' ॥६५।। . इस प्रकार निःस्पृह मार्गदर्शक गुरु का अमृतोपम उपदेश सुनकर नंदीषण का विषयताप शांत हो गया और स्वस्थ होकर उनसे साधुदीक्षा अंगीकार की। नंदीषेण मुनि दीक्षा ग्रहण के बाद अपने गुरु की सेवा में रहकर उग्रविहार करते हुए निरंतर छट्ठ-छ? तप (दो उपवास) के अनंतर पारणा करने लगा। उसने गुरु से नियम लिया कि "मैं आजीवन अम्लान-भाव से प्रतिदिन ५०० साधुओं की वैयावृत्य (सेवा) करूँगा।" इस नियम के अनुसार वह रोजाना गाँव से आहारपानी लाकर मुनियों की सेवाभक्ति करता था। पारणा भी दूसरे साधुओं को आहारपानी देकर ही करता था। सचमुच, साधुओं की वैयावृत्य से महान् लाभ है। कहा है वेयावच्चं निययं करेह उत्तमगुणे धरंताणं । . सव्वं किर पडिवाई, वेयावच्चं अपडिवाई ॥६६।। 'उत्तम-गुण-धारक मुनिराजों की नित्य वैयावृत्य (सेवा) करनी चाहिए। क्योंकि अन्य सभी धर्म क्रिया का फल प्रतिपाती हैं मगर वैयावृत्य का फल अप्रतिपाती है।' ॥६६॥ वैयावृत्यगुण के कारण नंदीषेण मुनि की संघ में सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। एक दिन सौधर्म-देवलोक के इन्द्र ने भी नंदीषेण मुनि की सेवागुण में दृढ़ता की प्रशंसा की। दो देवों को इन्द्र की बात पर प्रतीति न हुई। वे नंदीषेण मुनि की परीक्षा लेने के लिए वेष बदलकर रत्नपुरी पहुँचे। उनमें एक ने रोगी साधु का रूप - 139
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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