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________________ नंदीषेण की कथा श्री उपदेश माला गाथा ५४ नहीं होगा और एक के बाद एक मुसीबत झेलनी पड़ेगी।'' कहा भी है कर्मणो हि प्रधानत्वं, किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः । वशिष्ठदत्तलग्नोऽपि रामः प्रव्रजितो वने ।।६३।। अर्थात् - 'संसार में कर्म की ही प्रधानता है। उसमें शुभ ग्रह बेचारे क्या कर सकते हैं? श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक के लिए वशिष्ठ मुनि ने शुभ मुहूर्त निकाला था, लेकिन उसी मुहूर्त में (कर्मवशात्) श्रीरामचन्द्रजी को वनगमन करना पड़ा।' ॥६३॥ ___ नंदीषेण को इस दुःख से विरक्ती हो गयी। वह कर्मदोष को दूर करने के लिए दृढ़ निश्चय करके मामा के यहाँ से चल पड़ा। घूमते-घूमते संध्या-समय वह रत्नपुरी के बाहर एक उपवन में पहुँचा। वहाँ उसने एक स्त्री पुरुष के जोड़े को निर्वस्त्र होकर अत्यंत कामासक्ति पूर्वक गाढ़ आलिंगन करते एवं कामक्रीड़ा करते देखा। इसे देखकर उसे कामिनी की प्राप्ति में बाधक अपने दुष्टकर्मों के प्रति बड़ी ग्लानि हुई। मनुष्य की दुष्ट कर्मगति पर विचार करते-करते वह इस नतीजे पर पहुँचा कि उसे कर्मों का अंत करने के लिए शरीर का ही अंत कर देना चाहिए।' फलतः वह आत्महत्या करने के लिए वहाँ से एक निर्जन वन में पहुँचा। वहाँ एक शांत-दान्त परोपकारी, निःस्पृह सुस्थित नामक मुनि ने उसे आत्महत्या के लिए उतारू होते देखा। मुनि उसकी वृत्ति को जान गये। वे एकदम उसके निकट आये और हाथ के इशारे से उसे रोककर कहा- "भोले भाई! इस प्रकार की अज्ञानमृत्यु से क्या मिलेगा? तूं इन विषयसुखों की अप्राप्ति के कारण जिंदगी से ऊबकर ही तो अपने शरीर का अंत करना चाहता है न! पर जरा विचार कर। पूर्वजन्मों में अनंत बार एक से एक बढ़कर विषयसुखों का सेवन तेरे जीव ने किया है; फिर भी क्या सफलता मिली? कौन-सी सिद्धि प्राप्त हुई? इसीलिए मेरा कहना मान। तूं इन विषयसुखों का मार्ग छोड़कर धर्ममार्ग की शरण ले। मैं तुम्हें अपनाता हूँ। तूं एकनिष्ठ होकर धर्माचरण कर, जिससे तेरे सारे कर्मदोष मिट जायेंगे और न चाहने पर भी अनायास ही विषय-सुख साधन तेरे सामने प्रस्तुत होंगे। सर्प के फनों के समान भयंकर और कटु-परिणामप्रद इन विषयभोगों के सेवन से कोई लाभ नहीं। इनके सेवन से न तो कर्मदोष हटेंगे और न इनका परिणाम ही अच्छा आयगा। उलटे, नये भारी कर्मों का बंध होने से दुःख की परम्परा ही बढ़ेगी। शरीर भी रोग का घर बन जायगा। शरीर में कितनी व्याधियाँ हैं? सुनो पणकोडी अडसट्ठी लक्खा नव नवइसहस्स पंचसया । चुलसी अहिआ निरए, अपइट्ठाणम्मि वाहिओ ।।६४।। 138
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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