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श्री उपदेश माला गाथा ४८
श्री वज्रस्वामी की कथा अत्यंत भद्रिक था। उसकी पत्नी का नाम सुनंदा था। उसके साथ सांसारिक सुखों का उपभोग करते हुए अनेक वर्ष बीत गये। एक बार धनगिरि को गुरुवर का उपदेश सुनकर वैराग्य हो गया और उन्होंने अपनी धन-सम्पत्ति, जमीन जायदाद एवं सगर्भा पत्नी को छोड़कर गुरुवर सिंहगिरि से मुनि-दीक्षा अंगीकार की। मुनि बनकर वे उग्र तपस्या करने लगे और गुरुसेवा में तल्लीन होकर सारणा (हितशिक्षा देना), वारणा (विपरीत कार्य से रोकना), चोयणा (प्रेरणा करना) और पड़िचोयणा (बार-बार प्रेरणा करना) आदि धर्म प्रेरणाओं में निपुण हो गये। धनगिरि के दीक्षा लेने के बाद सुनंदा की कुक्षि से पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र-जन्म की बधाई देने के लिए सुनंदा के यहाँ स्वजन-सम्बन्धी आने लगे। वे परस्पर कहने लगे- "इस बालक के पिता ने तो दीक्षा ले ली है। अगर गृहस्थ में रहते तो वे भी धन्यवाद देने के योग्य होते।" स्वजनों के मुंह से ऐसी बात सुनकर बालक वज्र मन ही मन आश्चर्यपूर्वक सोचने लगे-"ओहो! ये लोग क्या कह रहे हैं? यह दीक्षाधर्म क्या होता है? क्या कभी मैंने भी इसका अनुभव किया है?" इस प्रकार ऊहापोह करते-करते उसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया; इससे उसने पूर्वजन्म में अनुभूत मुनिधर्म का स्वरूप जान लिया और विरक्त हृदय से सोचने लगा-"कहाँ यह जन्म-जरा-मृत्यु-शोक आदि दुःखों की परंपरा से व्याप्त संसार का विलास और कहाँ शाश्वत सुख के प्रकाशक मुनिधर्म में निवास? अरे मेरे जीव! तूने अनंत-अनंत बार विषय-सुखों का उपभोग किया, फिर भी अब तक तुझे संतोष नहीं हुआ? कहा भी है
धनेषु जीवितव्येषु भोगेष्वाहारकर्मसु ।
अतृप्ता: प्राणिन: सर्वे, याता यास्यन्ति यान्ति च ॥५७।।
अर्थात् - धन से, जीने से, भोगों से और आहार प्राप्त करने के कामों से सभी प्राणी अतृप्त रहते हैं, फिर भी सभी जीव इस दुनिया से चले गये, जायेंगे. और जाते हैं ॥५७॥ और भी कहा है
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याता स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥५८||
___ अर्थात् - हमने भोगों का भोग नहीं किया, भोगों ने ही हमारा भोग (बलि) ले लिया, हमने तप नहीं तपा, किन्तु स्वयमेव तप गये; काल नहीं गया, हम ही चले गये; हमारी तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई, हम ही बूढ़े हो गयें ॥५८॥
अतः सांसारिक विषयसुख सुलभ है, मगर इस बोधि (सम्यक् श्रद्धा) रत्न प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है। अनुभवी पुरुषों का कहना है।
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