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श्री वज्रस्वामी की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ४८ रूपवान बना, कभी कुरूप बना, कभी सुखभागी बना और कभी दुःखभागी, कभी राजा बना, कभी रंक बना, कभी चाण्डाल बना और कभी वेदवेत्ता ब्राह्मण बना, कभी स्वामी, कभी दास, कभी पूज्य (उपाध्याय आदि), कभी दुर्जन बना, कभी निर्धन
और कभी धनवान। संसार में ऐसा कोई नियम नहीं है कि उच्चकुल में जन्मा हुआ भविष्य में उच्चगति, योनि या गोत्र में ही पैदा हो और नीचकुल में जन्मा हुआ भविष्य में नीच गति, योनि या गोत्र में ही पैदा हो। अपितु जीव के जैसे अपने कर्म होते हैं, उसी प्रकार की चेष्टा करता हुआ वह नट की तरह नये-नये रूप और वेश धारण करके संसार में परिभ्रमण करता है ।।४५-४६-४७।।
भावार्थ - ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं है कि मनुष्य मरकर भविष्य में मनुष्य, पशु मरकर पशु और देव मरकर देव ही बनता हो; अपितु जो जीव जैसेजैसे शुभाशुभ कर्म करता है, तदनुसार चेष्टा करके वैसी ही योनि प्राप्त करता है और नट की तरह नये-नये आकार वाला वेश धारण करके इस संसारचक्र में परिभ्रमण करता रहता है।
संसार के इस स्वरूप को जानकर जो विवेकी पुरुष मोक्षाभिलाषी होते हैं, वे कदापि कंचन और कामिनी में आसक्त नहीं होते ।।४५-४६।। इसीलिए आगे की गाथा में साधुजनों की निर्लोभता का वर्णन करते हैं
कोडीसएहिं धणसंचयस्स्, गुणसुभरियाए कन्नाए । न वि लुद्धो वयररिसि, अलोभया एस साहूणं ॥४८॥
शब्दार्थ - सैंकड़ों कोटि धनराशि और गुणों से परिपूर्ण कन्या उनके चरणों में आयी, मगर वज्रस्वामी जरा भी लुब्ध नहीं हुए। इसी प्रकार अन्य साधुओं को भी ऐसी निर्लोभता धारण करनी चाहिए ।।८।।
भावार्थ - रूप-लावण्य आदि गुणों से सम्पन्न रुक्मिणी नाम की अपनी कन्या करोड़ों सुवर्णमुद्राओं के सहित धनवाह सार्थवाह श्री वज्रस्वामी के चरणों में समर्पित कर रहा था, लेकिन वज्रस्वामी के दिल के किसी कोने में धन या स्त्री में जरा भी आसक्ति-भाव नहीं आया। बल्कि उन्होंने उसे योग्य धर्मोपदेश देकर धर्म-बोध प्राप्त करवाया और साध्वीदीक्षा दी। सभी मुनियों को ऐसी ही निर्लोभता रखनी चाहिए। इस सम्बन्ध में प्रसंगवश वज्रस्वामी का दृष्टांत दे रहे हैं
श्री वज्रस्वामी की कथा तुम्बवन गांव में धनगिरि नाम का एक कुशल व्यापारी रहता था। वह
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