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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४४ हरिकेशबल मुनि की कथा उसी दरम्यान महामुनि हरिकेशबल अपने मासक्षमण के पारणे के लिए भिक्षा ग्रहण करने संयोगवश उसी यज्ञमण्डप में प्रविष्ट हुए। मुनि को यज्ञमण्डप में आते देख रोषाविष्ट होकर ब्राह्मण चिल्लाने लगे-"अरे! यह कालाकलूटा, भूत-सा भयंकर मैलेकुचैले शरीर व वस्त्रों वाला बेडौल और बदसूरत कौन यहाँ आ रहा है? रोको इसे वहीं!" उसी समय तपस्वी महामुनि ने ब्राह्मणों द्वारा आगमन का प्रयोजन पूछने पर शांतभाव से कहा-"विप्रो! मैं एक भिक्षाजीवी मुनि हूँ। भिक्षा द्वारा निर्वाह करना मेरा धर्म है। तुम्हारे यहाँ बहुत-सा आहार बना है, मैं उसमें से थोड़ा-सा भिक्षा के रूप में लेना चाहता हूँ।" किन्तु आचार्य ब्राह्मण यह कब सुनने लगे! उन्होंने क्रूद्ध होकर कहा-"अरे पिशाचरूप! यह भोजन तेरे जैसे अधम शूद्रों को देने के लिए नहीं है; यह तो उत्तम ब्राह्मणों को देने के लिए बनाया गया है, जिन्हें देने से हजार गुना पुण्य मिलेगा, तुम्हें देना तो राख में घी डालने के समान है। इसीलिए चला जा यहाँ से! यहाँ क्यों खड़ा है? तुझे यह भोजन नहीं मिल सकता?" यों कहकर सभी ब्राह्मण मुनि को ताने मारने और उपहास करने लगे! यक्ष ने मुनि का अनादर होते देख उनके शरीर में प्रवेश किया और बोला-"विप्रो! सुनो, मैं एक श्रमण (जैनमुनि) हूँ, यावज्जीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला और अहिंसादि महाव्रतों का पालक हूँ| इसीलिए मैं सुपात्र हूँ, ब्राह्मण सुपात्र नहीं; क्योंकि वे पशुवध आदि पाप करने वाले हैं; मुख से न कहने योग्य स्त्री के गुह्यस्थान का मर्दन करने वाले और उत्तमज्ञान से कोसों दूर हैं। अतः मैं ही सुपात्र हूँ, तुम्हे पुण्यलाभ देने के लिए मैं यज्ञमंडप में आया हूँ। मुझे शुद्ध आहार दो।" यह सुनते ही ब्राह्मणों का पारा और गर्म हो गया, ये मुनि को मारने के लिए दौड़े। वे लाठियों, मुक्कों और पत्थरों से उन पर एकदम टूट पड़े। यक्ष यह देखकर बहुत रुष्ट हुआ और उसने उन ब्राह्मणों पर इतना जोर से प्रहार किया कि वे सबके सब जर्जरित होकर औधे मुंह धरती पर गिर पड़े और उनके मुंह से खून बह निकला। इससे चारों ओर बड़ा कोलाहल मच गया। दौड़ो-दौड़ो, बचाओ-बचाओ की आवाज सुनकर सभी ब्राह्मण वहाँ पहुँच गये। यह शोर शराबा सुनकर राजकुमारी सुभद्रा भी घटनास्थल पर पहुँची। वह मुनि को देखते ही पहिचान गयी। भयभीत होकर वह अपने पति रुद्रदेव आदि से कहने लगी-"अजी! आप लोगों को क्या दुर्बुद्धि सुझी कि इन पवित्र तपस्वी मुनि को सताया। इसी का दुष्परिणाम आप देख रहे हो। अब और अधिक इन्हें सताओगे तो यमलोक पहुँच जाओगे। यह मुनिराज महाप्रभावशाली और तपस्वी हैं और तिन्दुकयक्ष के पूजनीय है। मैंने इन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए पहले बहुत प्रयत्न किया, लेकिन धन्य है, इन मुनिवर को, यह जरा भी 125
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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