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________________ हरिकेशबल मुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४४ यह अवज्ञा कर रही है! इसे इस अवज्ञा का फल चखाना चाहिए। “फलतः यक्ष ने राजकन्या के शरीर में प्रवेश किया। यक्षाविष्ट होने से वह अत्यंत बकवास करने लगी, गले का हार तोड़ डाला, वस्त्र फाड़ डाले तथा शरीर और कपड़ों पर गंदगी पोतने लगी।" सेवकों ने राजकुमारी की ऐसी हालत देखकर उसे अपने माता-पिता के पास पहुंचा दिया। राजा ने पुत्री के स्नेहवश राजकुमारी की बहुत चिकित्सा करवाई। अनेक मांत्रिकों, तांत्रिकों और वैद्यों को बुलाये, लेकिन कोई भी उसे ठीक न कर सका। जब सभी निराश होकर लौट गये; तब यक्ष ने प्रकट होकर कहा"राजन्! अपने रूप की अभिमानिनी तुम्हारी पुत्री ने मेरे पूज्य मुनिराज का उपहास किया है। अब इसको मैं तभी छोड़ सकता हूँ, जब यह मुनि के चरणों की दासी बनकर उनकी सेवा करे; इसके सिवाय और कोई चारा नहीं।" राजा ने सोचा'चलो, मुनि, को समर्पित कर देने से मेरी कन्या के प्राण तो बच जायेंगे और मैं उसे जिंदा तो देख सकूँगा।' राजा ने अपने परिजनों के साथ सलाह करके राजकुमारी को पहले से विनयादि करना सिखाकर हरिकेशमुनि के पास भेजा। राजकुमारी यक्षमंदिर में मुनि के पास पहुँची और उन्हें वंदन करके विनयपूर्वक बोली- "ऋषिवर! आप मेरे साथ पाणिग्रहण करके मुझे स्वीकारें। मैं आपके चरणों की दासी बनकर आपकी आज्ञावर्ती होकर आपकी सेवा में रहने आई हूँ।" समभावी मुनि ने कहा-"भद्रे! मुनि कामादि विषयों की आसक्ति से सर्वथा दूर रहते हैं। इसीलिए हमें तेरे साथ पाणिग्रहण करने से कोई मतलब नहीं।" तिन्दुकयक्ष । ने मौका देखकर मुनि के शरीर में प्रवेश किया और राजकन्या के साथ शादी करके उसको तिरस्कृत करके छोड़ दी। इस शादी को स्वप्नोपम जानकर कन्या हताश हो रोती हुई अपने पिता के पास पहुँची। उनसे सारी आपबीती घटना सुनाई। संयोग वश रुद्रदेव नाम का राजपुरोहित भी वहाँ बैठा था। उसने सुनकर कहा- "महाराज! यह कन्या ऋषिपत्नी बनी है और अब ऋषि ने इसे छोड़ दी है। इसीलिए ऋषित्यक्ता पत्नी ब्राह्मण को अर्पित की जाती है; इस वेदवाक्य के विधानानुसार आप इसे ब्राह्मण को अर्पण कर दें।" राजा ने उसी समय अपनी कन्या रुद्रदेव पुरोहित को समर्पित कर दी। रुद्रदेव यज्ञ-याग करने वाला पुरोहित था। एक बार उसने यज्ञ प्रारंभ किया। यज्ञ में पति के साथ-साथ पत्नी को भी भाग लेना जरूरी होता है। राजकुमारी सुभद्रा को रुद्रदेव ने पत्नी के रूप में नियुक्त की। यज्ञमण्डप में उस समय बहुत से ब्राह्मण आये हुए थे। कुशल याज्ञिक यज्ञकर्म करने में तल्लीन थे। उन सबके लिये अनेक प्रकार का स्वादिष्ट भोजन तैयार कराया गया था। 124
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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