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________________ हरिकेशबल मुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४४ विचलित नहीं हुए।'' यों कहकर सुभद्रा ने मुनि के चरणों में नमन करके कहा-'कृपासिन्धो! ये सब अनाड़ी और मूर्ख लोग है। मेरे अनुरोध से आप इनका अपराध क्षमा करें। मैं इनके बदले आपसे क्षमा मांगती हूँ।" मुनि ने कहा"देवानुप्रिये! मैंने इन पर क्रोध नहीं किया है। मुनि को किसी पर भी क्रोध नहीं करना होता। क्रोध से बड़ा अनर्थ होता है। कहा भी है जं अज्जियं चरित्तं देसूणाए पुव्वकोडीए । तंपि अ कसायमित्तो हारेइ नरो मुहुत्तेण ॥५३।। __ "एक करोड़ पूर्व वर्ष से कुछ समय कम तक अर्जित किये हुए चारित्रधन को साधक सिर्फ एक मुहूर्त (४८ मिनट) तक कषाय (क्रोधादि) करके सर्वस्व गंवा देता है।" ॥५३॥ इसीलिए मुनि को किसी भी प्रकार का क्रोधादि न करके समभाव में स्थिर रहना चाहिए। मैंने भी ऐसा ही किया है। परंतु मेरे प्रति भक्तिवश यक्ष ने ही. यह सब किया है। रुष्टयक्ष को आप सब लोग प्रसन्न करें। मुनिवचन सुनकर ब्राह्मणों ने उस यक्ष से क्षमा मांगकर उसका अर्चन करके उसे प्रसन्न किया; जिससे थोड़ी ही देर में सभी घायल ब्राह्मण होश में आये और स्वस्थ हो गये। मुनि के तपस्तेज से प्रभावित सभी ब्राह्मण अब यज्ञकर्म को छोड़कर उनके चरणों में गिर पड़े उनकी स्तुति की और भिक्षा के लिए पधारने की प्रार्थना करने लगे। मुनि यज्ञमंडप में पहुँचे। उन्हें भक्तिभाव से शुद्ध आहार भिक्षा में दिया। मुनि को . दान देने के प्रभाव से देवों ने वहाँ पाँच दिव्य प्रकट किये। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए आश्चर्यविस्फारित नेत्रों से जनता की भीड़ वहाँ जमा हो गयी। राजा के कानों में यह बात पड़ते ही वह भी पहुँचा। सभी लोग उस सुपात्रदान की प्रशंसा करने लगे। कहा है व्याजे स्याद् द्विगुणं वित्तं, व्यवसाये स्याच्चतुर्गुणम् । क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनन्तगुणं तथा ॥५४॥ अर्थात् - कहा है, ब्याज पर देने पर धन दुगुना हो जाता है, व्यवसाय में लगाने पर चार गुना होता है, उत्तम पुण्यक्षेत्र में खर्च करने पर सौगुना हो जाता है, और पात्र को दान देने पर वही धन अनंतगुना हो जाता है ।।५४।। सुपात्रता के लिए बताया हैमिथ्यादृष्टिसहस्रेषु वरमेको ह्यणुव्रती । अणुव्रतिसहस्रेषु वरमेको महाव्रती ।।५५।। 126
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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