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श्री उपदेश माला गाथा ४४
हरिकेशबल मुनि की कथा संसार की असारता जानकर वैराग्य-भाव से मुनि-दीक्षा ग्रहण की। विहार करते हुए वे एक बार हस्तिनापुर पधारें। वे शहर में जाने का रास्ता नहीं जानते थे। इसीलिए भिक्षा के लिए जाते समय उन्होंने सोमदेव पुरोहित से शहर में जाने का मार्ग पूछा। सोमदेव को मुनि-वेश पर बड़ा द्वेष था। इसीलिए उसने व्यन्तर से अधिष्ठित अग्नि के समान तप्त मार्ग बता दिया। मुनि सहजभाव से उसी मार्ग पर चल पड़े। सोमदेव सोचने लगा- 'बड़ा अच्छा हुआ! अभी यह साधु मेरे बताये मार्ग से जायेगा और वहीं राख की ढेर हो जायगा। जरा देखू तो सही तमाशा!' वह अपने घर के गवाक्ष में बैठकर तमाशा देखने लगा। परंतु उसकी आशाओं पर पानी फिर गया। संख राजर्षि ईर्यासमिति-पूर्वक सावधानी से मंदगति से चले जा रहे थे। उनके तप-तेज और धर्माचरण के प्रभाव से वह व्यन्तर भी वहाँ से भाग गया; जिससे वह रास्ता शीतल हो गया। मुनि जब उस रास्ते से निर्विघ्न पार हो गये तो सोमदेव बड़ा प्रभावित हो गया। सोचने लगा-"यह इन मुनिवर का और धर्म का ही प्रभाव है, जिसके कारण अंगारों के समान तपतपाता यह मार्ग अत्यन्त ठंडा हो गया, व्यन्तर भी कोई उपद्रव न कर सका! धन्य है इस मुनि-वेश को! धन्य है इस धर्म को!" यों शुभ-विचारों में डूबता-उतरता वह मकान से नीचे उतरा। राजमार्ग पर जाते हुए शंख राजर्षि के चरणों में गिर पड़ा और बोला- "महात्मन्! मेरा अपराध क्षमा करें। मैंने अज्ञान और द्वेषवश यह दुष्कृत्य किया है।'' मुनि ने उसे क्षमा किया और योग्य जानकर धर्मोपदेश दिया, जिसे सुनकर सोमदेव पुरोहित को प्रतिबोध हुआ। वह मन ही मन सोचता रहा–'ये मुनि कितने उपकारी हैं, जो अपकार करने वाले पर भी उपकारी बुद्धि रखते हैं।' पुरोहित ने आगे बढ़कर मुनि से प्रार्थना की"भगवन्! जब आपने मुझ पर इतना उपकार करके जागृत किया है तो अब कृपा करके भवसागर में गोते खाते हुए मुझे चारित्र रूपी नौका का आश्रय देकर पार उतार दें।" शंख-राजर्षि ने उसे संयम के योग्य समझकर मुनि-दीक्षा दे दी। सोमदेव मुनि बनकर निर्दोष रूप से चारित्र की आराधना करने लगा। किन्तु ब्राह्मण जाति के अभिमान (मद) के संस्कार उसमें बार-बार उछल-कूद मचाने लगे। वह नीच कुल में जन्म लेने वालों का अपमान कर बैठता और अपनी उच्च जाति-कुल का अभिमान प्रकट करता। महाव्रतों की आराधना तो चिरकाल तक की, लेकिन अंतिम समय में अपने जाति-मद की आलोचना नहीं की। यहाँ से मरकर वह देव बना।
वहाँ चिरकाल देवलोक के सुखों का उपभोगकर अपना आयुष्य पूर्ण करके सोमदेव पुरोहित का जीव नीचगोत्र के कर्मबंध के कारण गंगातट पर बलकोट नामक चण्डाल की पत्नी गौरी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ।
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