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हरिकेशबल मुनि की कथा
श्री उपदेश माला गाथा ४४
यदि दुष्टचेष्टा वाले बालजीवों को क्षमा कर देते हैं तो इसमें कौन सी आश्चर्य की बात
है? ।।४३।।
भावार्थ - लोकव्यवहार में जो कान वाला होता है, उसे सुकर्ण कहते हैं, मगर वास्तविक रूप से सुकर्ण वही है, जिसने जिनेश्वरदेवों का वचनामृत सुना है और उसे हृदय में धारण किया है। ऐसा सुकर्ण संसार के घोर विकटस्वरूप को भलीभांति जानता है। यदि ऐसे सुकर्ण और संसारतत्त्वज्ञ स्कन्दकाचार्य के मुनि शिष्यों ने यदि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों की दुष्ट चेष्टाओं को सह ली और उन्हें क्षमा कर दिया तो इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात हुई ? क्योंकि दुष्टों के अपराधों को सहन करना और उन्हें बाल ( अज्ञानी) समझकर क्षमा करना ही मुनियों के लिए उचित है ॥ ४३॥
न कुलं एत्थ पहाणं, हरिएसबलस्स किं कुलं आसि ? ।
आकंपिया तवेणं, सुरा वि जं पज्जुवासंति ॥४४॥
शब्दार्थ - इस धर्म में कुल की प्रधानता नहीं है। क्योंकि मुनि हरिकेशबल का कौन-सा कुल था? फिर भी उनके तप से आकम्पित ( प्रभावित) होकर देव भी उनकी सेवा करते थें ।। ४४ ।।
भावार्थ - जैनशासन में धर्माराधना करने में कुल को कोई प्रधानता नहीं दी जाती। ऐसा कोई यहाँ नियम या विधान नहीं है कि उग्र, भोग आदि उच्चकुल में पैदा हुआ व्यक्ति ही धर्माराधना कर सकता है। बल्कि उच्चकुल में जन्म लेकर भी यदि कोई नीच कार्य- धर्मविरुद्ध अनाचार करता है तो वह नरकादि नीच गतियों में अवश्य जाता है और नीच कहलाने वाले कुल में पैदा होकर भी कोई सज्जन मुनि-धर्म या श्रावक - धर्म की सम्यक् आराधना करता है तो वह सद्गति का भाजन बनता है। क्या हरिकेशीबल का जन्म उच्चकुल में हुआ था ? नहीं, उसका जन्म हुआ था, चाण्डाल के कुल में। लेकिन साधु-जीवन अङ्गीकार कर के उन्होंने वैराग्यपूर्वक तप, जप और संयम की इतनी उत्कृष्ट आराधना की थी कि मनुष्यों की तो बात ही क्या, देवता भी आकर्षित होकर उनकी सेवा - भक्ति में तत्पर रहते थें। इसीलिए जैनधर्म में सदाचरण की ही प्रधानता है, कुल जाति आदि की नहीं । यहाँ पूर्वजन्म के वर्णन पूर्वक हरिकेशबल की कथा दे रहे हैंहरिकेशबल मुनि की कथा
किसी समय मथुरा नगरी में शंख नामक राजा राज्य करता था। वह न्याय करने में बहुत निपुण था। एक बार शंख राजा ने मुनिराज का उपदेश सुना और
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