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________________ हरिकेशबल मुनि की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४४ माता ने स्वप्न में नीलवर्ण का यक्ष देखा था; इसीलिए उसका नाम हरिकेशबल रखा। बड़ा होने पर हरिकेश एक दिन अपने समान आयु वाले लड़कों के साथ खेल रहा था। बसंत का उत्सव चल रहा था। हरिकेश भी अपने मस्तीभरे बचपन में दूसरों को कुछ नहीं गिनता था। वह अक्सर दूसरे बालकों को पीट दिया करता था। बचपन में बच्चे का स्वभाव ऐसा ही होता है। कहा भी हैन सहंति इक्कमिक्कं, न विना चिट्ठति इक्कमिक्केण । रासह - वसह - तुरंगो, जुआरी पंडिया डिंभा ||४९।। अर्थात् - गधा, बैल, घोड़ा, जुआरी, पंडित और बालक; ये एक दूसरे को सहन नहीं कर सकते और न एक दूसरे के बिना रह ही सकते हैं ||४९|| • हरिकेशबल का शरारती स्वभाव देखकर सब बालकों ने मिलकर उसे अपनी मंडली से निकाल दिया। उन्हीं दिनों में वहाँ एक बार सर्प निकला। सर्प को देखते ही लोग उस पर टूट पड़ें और उसे मार डाला। उसी समय एक दूसरा सर्प निकला, जो दो मुंह वाला था, वह विषधारी नहीं था, न किसी को डसता था । अतः लोगों ने उस सर्प को निर्विष समझकर मारे - पीटे बिना ही छोड़ दिया। हरिकेशबल ने जब ये दोनों घटनाएँ देखीं तो उसके दिमाग में विचारों की किरण फूटी - "इस अगाध संसार रूपी कूप में जीव अपने ही कर्मों से दुःखी होते हैं, अपने ही कर्मों से सुखी ! दूसरे तो सिर्फ निमित्त हैं। कहा भी है रे जीव सुहदुहेसु निमित्तमित्तं परं वियाणाहि । सकयंफलं भुंजंतो, कीस मुहा कुप्पसि परस्स ॥५०॥ अर्थात् - अरे जीव! सुख और दुःख में दूसरे को तो निमित्तमात्र समझा। वास्तव में तो तूं अपने ही किये हुए कर्म का फल भोगता है। फिर क्यों दूसरे ( निमित्त) पर क्रोध करता है ? ||५०|| " दरअसल, जीव अपने ही गुणों से सुखी होता है। सुख और दुःख का मूल कारण व्यक्ति की अपनी आत्मा ही है। इसीलिए प्राणी के जीवन की निर्विषता ही उसे सुख प्राप्त कराती है। जिसके जीवन में विषय रूपी विष है, वह मृत्यु प्राप्त करता है। विषय - विषरहित मनुष्य को धन्य है ! निर्विष को लोग नहीं सताते, विषैले को ही सताते हैं।" इस प्रकार चिन्तन में डुबकी लगाते-लगाते उसके हृदय - नेत्र खुल गये । संसार प्रपंच का उहापोह करते-करते संसार - तापहारी जातिस्मरण ज्ञान पैदा हो गया । ज्ञान के प्रकाश में उसने संसार का स्वरूप भलीभांति देखा - " अहो ! मैं तीसरे भव में सोमदेव पुरोहित था। मुनि के प्रतिबोध से मुझे वैराग्य हुआ था; मैंने दीक्षा ग्रहण करके चारित्र पालन किया; मगर जाति का 122
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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