SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्कन्दकाचार्य व उनके शिष्यों की कथा श्री उपदेश माला गाथा ४२ नहीं हुए, क्योंकि वे परमार्थ के तत्त्व को जान गये थें। जो पण्डित होते हैं, वे स्वयं कष्ट सहते हैं, किन्तु अपकारी को भी क्षमा कर देते हैं ।। ४२ ।। भावार्थ - 'पालक नाम के पुरोहित ने स्कन्दकाचार्य के ५०० शिष्यों को घानी में पील दिया, फिर भी उन्होंने क्रोध नहीं किया। प्रत्युत, उपसर्ग देने (कहर बरसाने) वाले पर भी उनके मन में करुणा थी। जो परमार्थवेत्ता और तत्त्वज्ञ होते हैं, वे सदा क्षमाधारण करते हैं, प्राणांत कष्ट होने पर भी वे संयममार्ग से विचलित नहीं होते; वे विषम परिस्थितियों में भी अपने धर्म पर शुद्धनिष्ठा पूर्वक स्थिर रहते हैं।' इस सम्बन्ध में स्कन्दकाचार्य के शिष्यों का ज्वलन्त उदाहरण देखिए स्कन्दकाचार्य व उनके शिष्यों की कथा श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम धारिणी था। उसकी कुक्षिं से स्कन्दककुमार का जन्म हुआ। 'पुरन्दरयशा' स्कन्दक की बड़ी बहन थी। भाई-बहन में बड़ा स्नेह था। बड़ी होने पर पुरंदरयशा की शादी कुम्भकारकटक नगर के राजा दण्डक से कर दी गयी। दण्डक राजा के दरबार में पालक नाम का पुरोहित था। एक बार दंडक राजा ने किसी आवश्यक कार्य से पालक को अपने ससुराल जितशत्रुनृप के पास भेजा । पालक जितशत्रु की राजसभा में पहुँचा और उनसे अपने आने का प्रयोजन बताया। बातचीत के सिलसिले में वहाँ धर्मचर्चा चल पड़ी। पालक ने अपने नास्तिक मत का प्रतिपादन किया, जिसका वहाँ बैठे हुए जैनतत्त्वों के विशेषज्ञ स्कन्दककुमार ने अपनी अकाट्य युक्तियों से खण्डन कर दिया। पालक निरुत्तर और हतप्रभ हो गया। उसके अहंकार को चोट लगने के कारण चोट खाये हुए सांप की तरह वह क्रोध से तमतमा उठा। मगर वहाँ वह कुछ न कर सका। अपने कार्य से निवृत्त होकर वह कुम्भकारकटक वापिस आया और अपमान का बदला लेने की ताक में रहने लगा। एक बार भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में पधारें। स्कन्दककुमार भी उनके दर्शन और वंदन के लिए गया। प्रभु का वैराग्यमय धर्मप्रवचन सुनकर स्कन्दककुमार को संसार से विरक्ति हो गयी। उसने ५०० राजपुत्रों के साथ मुनि दीक्षा अंगीकार की। स्कन्दकमुनि दूर - सुदूर देशों में उग्रविहार करने लगे; सकल सिद्धान्त के ज्ञाता जानकर भगवान् ने उन्हें ५०० साधुओं का आचार्य बना दिया। एक दिन आचार्य स्कन्दकमुनि ने भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी के पास आकर सविनय प्रार्थना की- " भगवन्! अगर आप आज्ञा दें तो मैं अपने गृहस्थपक्ष के बहन-बहनोई - पुरन्दरयशा और दण्डक राजा - आदि को प्रतिबोध देने कुम्भकारकटक 116
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy