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________________ श्री उपदेश माला गाथा ४०-४२ आलभ परिषह पर श्री ढंढणकुमार की कथा आहारेसु सुहेसु अ, रम्मावसहेसु काणणेसु च । साहूण नाहिगारो, अहिगारो धम्मकज्जेसु ॥४०॥ शब्दार्थ - बढ़िया आहार, रमणीय उपाश्रय (धर्मस्थान) या सुंदर उद्यान पर साधुओं का कोई अधिकार नहीं होता; उनका अधिकार तो केवल धर्मकार्यों में ही होता है ।।४०।। भावार्थ - स्वादिष्ट खानपान पर, आलीशान उपाश्रय (धर्मस्थान) पर या रमणीय बाग-बगीचों पर साधुओं का अपना कोई अधिकार (स्वामित्व) नहीं होता; क्योंकि इन सबके प्रति स्वामित्व (मालिकी हक) वे छोड़ चुके हैं। मुनियों का अधिकार केवल धर्मकार्य करने-[कराने में है। क्योंकि त्याग, तप, जप, इन्द्रियनिग्रह, क्षमा, कषायोपशमन आदि धर्मकार्य-धर्मप्रवृत्ति तो उनके आधीन है। कोई भी किसी भी समय उन्हें इन धर्मकार्यों को करने से रोक नहीं सकता। मगर उपर्युक्त वस्तुओं का उपयोग तो वे धर्मप्राप्त (भिक्षाधर्म से प्राप्त) होने पर ही कर सकते हैं। किन्तु उन वस्तुओं पर अपना स्वामित्व हक स्थापित करके अपना कब्जा नहीं जमा सकते; न उन इन्द्रियसुखकारी पदार्थों पर वह आसक्तिभाव ही रख सकते हैं ॥४०॥ साहू कंतारमहाभएसु, अवि जणवए वि मुइयम्मि । अवि ते सरीरपीडं, सहति न लहंति, य विरुद्धं ॥४१॥ शब्दार्थ- साधु महाभयंकर घोर जंगलों में भी सुखसामग्री से समृद्ध जनपद (प्रदेश) की तरह निरुपद्रव समझकर सर्वत्र कष्टसहिष्णु होकर शारीरिक पीडा सहन करते हैं; किन्तु साधुधर्म के नियमों के विरुद्ध आहारादि ग्रहण नहीं करते ।।४१।। भावार्थ - साधुगण महाभयंकर जंगलों में भी अपने को निरुपद्रव समृद्ध जनपद में हूँ, ऐसा समझकर शारीरिक पीड़ा सहन करते है, मगर संयम विरुद्ध आचरण नहीं करते। यानी चाहे जैसे कष्ट उपस्थित होने पर मुनिजन अनैषणीय (अशुद्ध), अकल्पनीय (नियमविरुद्ध) आहारादि नहीं लेते और न दूसरे (गृहस्थ) के द्वारा सामने लाया हुआ आहारादि का भी वे सेवन करते हैं। मतलब यह है कि आहारादि लेने का उन पर प्रतिबंध नहीं है, प्रतिबंध है तो एकमात्र धर्माचरण का ही, सर्वत्र धर्म का विचार करके विचरण करना ॥४१॥ जंतेहिं पीलियावी हु, खंदगसीसा न चेव परिकुविया । विइयपरमत्थसारा, खमंति जे पंडिया हुंति ॥४२॥ शब्दार्थ - यंत्र (घाणी) में पीलने पर भी स्कन्दकाचार्य के शिष्य कुपित 115
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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