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आलभ परिषह पर श्री ढंढणकुमार की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३६ वे फौरन हाथी से नीचे उतरे और ढंढणमुनि को भक्तिभावपूर्वक तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदना की; और कहा-"धन्य हो मुनिवर आपको! आप अत्यंत पुण्यशाली हैं। प्रबल भाग्य के बिना आपके दर्शन सुलभ नहीं है।'' उस समय श्रीकृष्णजी के साथ १६००० राजा थे, उन्होंने भी मुनि के चरणों में नमस्कार किया। ठीक उसी समय अपने घर के गवाक्ष में बैठा हुआ एक वणिक् यह सब देख रहा था। उसने अपने वणिक्-संस्कारवश सोचा-"हो न हो, यह मुनि बड़े प्रभावशाली जान पड़ते हैं, जिससे महासमृद्धिशाली श्रीकृष्ण आदि राजा भी इनके चरणों में नमन करते हैं। अतः क्यों न मैं भी इन्हें बुलाकर बढ़िया लड्डू इनके भिक्षापात्र में देकर इस महापुण्य का लाभ लूँ!" फलतः वह तुरंत वहाँ से उठकर राजमार्ग पर आया। ढंढणमुनि को वह अति आदरपूर्वक अपने घर ले गया और बड़े भक्तिभाव से उनके पात्र में लड्डू वहोराएँ।
ढंढणमुनि स्वाभाविक रूप से प्राप्त आहार जानकर उसे लेकर भगवान् के पास आये और हर्षावेश में उनसे सविनय पूछा-"भगवान्! क्या आज मेरा अंतरायकर्म समाप्त हो गया?" भगवान् ने कहा-"नहीं, वत्स! अभी तक तुम्हारा अंतरायकर्म क्षीण नहीं हुआ।" ढंढणमुनि-"तो भगवन्! आज मुझे जो आहार मिला है, वह क्या मेरी लब्धि से नहीं मिला?' "नहीं, वत्स! यह आहार तेरे अंतरायकर्म के क्षय होने से या तेरी अपनी लब्धि से प्राप्त नहीं हुआ। यह तो श्री कृष्ण वासुदेव की लब्धि से तुझे प्राप्त हुआ है।" भगवान् ने रहस्य खोला। "तब तो भगवान्! मेरे लिये यह आहार अकल्पनीय और अग्राह्य है। मैं इसे कदापि ग्रहण नहीं करूँगा, क्योंकि इससे मेरी सत्य प्रतिज्ञा में आंच आयेगी। मैं इसे निरवद्य स्थान में परिष्ठापन (डाल) कर आता हूँ।" यों कहकर भगवान् से अनुमति लेकर ढंढणमुनि उस आहार को निरवद्य भूमि पर परिष्ठापन करने चल पड़े। वे मोदकों को चूरते जाते हैं, साथ ही साथ विशुद्ध से विशुद्धतर भावों (अध्यवसायों) के सोपान पर चढ़कर, शुक्लध्यान रूपी अग्नि से अपने पूर्वकृत अंतरायकर्म ही नहीं, चारों घनघाती कर्मों को चूर-चूरकर डालते हैं। फलस्वरूप उन्हें वहीं केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने उसकी खुशी में दुंदुभियां बजाईं। चारों और जयजयकार के नारों से द्वारिकानगरी गूंज उठी। श्रीकृष्ण आदि भव्यजनों को यह जानकर अपार हर्ष हुआ। तत्पश्चात् केवलज्ञानी ढंढणमुनि काफी समय तक स्व-पर कल्याणार्थ भूमंडल पर विचरते रहे और अंत में जन्म-मरण से सर्वथा रहित होकर मोक्ष में जा बिराज।।३९॥"
अन्य मुनियों को भी इसी प्रकार धर्माचरण करके कर्मक्षय करना चाहिए।
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