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श्री उपदेश माला गाथा ३६
आलभ परिषह पर श्री ढंढणकुमार की कथा करनेवाली, अमृतनिझर के समान, मोहमल्लनाशिनी, सर्वक्लेशहारिणी पवित्र धर्मदेशना दी। वैराग्यरस से ओतप्रोत भगवद्वाणी सुनकर ढंढणकुमार का मन वैराग्यसागर में हिलोरे लेने लगा। उसने माता-पिता की आज्ञा से भगवान् अरिष्टनेमि के पास भागवती मुनिदीक्षा अंगीकार की। दीक्षा ग्रहण करने के बाद ढंढणमुनि द्वारिका नगरी में भिक्षा के लिए घर-घर जाते हैं। श्री कृष्ण वासुदेव के पुत्र और श्री अरिष्टनेमिनाथ के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध होने पर भी उन्हें कहीं शुद्ध (आहार ग्रहण के दोषों से रहित) आहारपानी नहीं मिलता। भगवान् अरिष्टनेमि ने एक दिन इसका रहस्योद्घाटन किया-"मुने! तुम्हें शुद्ध आहार नहीं मिलता, उसका कारण
और कोई नहीं, पूर्वजन्म में बांधा हुआ अंतरायकर्म ही है। वह कर्म अब उदय में आया है। अतः ऐसा करो कि तुम्हारे लिये दूसरे मुनि जो आहर लावें, उसे तुम ग्रहण कर लिया करो" शुद्ध भावों की तीव्रता और बांधे हुए अंतराय कर्म का क्षय करने की तमन्ना को लेकर ढंढणमुनि ने भगवान् से हाथ जोडकर सविनय प्रार्थना की-"त्रिलोकनाथ प्रभो! आज से मुझे ऐसा अभिग्रह (सत्संकल्प) करा दीजिए 'कि जब तक मेरे अंतरायकर्म का क्षय नहीं हो जाता तब तक मैं अपनी लब्धि से प्राप्त और स्वयं लाया हुआ आहार ही ग्रहण करूँगा, दूसरे की लब्धि का या दूसरे के द्वारा लाया हुआ आहार आज से मुझे अकल्प्य-अग्राह्य होगा।" :
प्रभु ने उन्हें 'जहासुहं' कहकर वैसा अभिग्रह करा दिया। अभिग्रहधारी ढंढणमुनि शांत और अव्याकुलचित्त से भिक्षा के लिए नगरी में घूमते हैं, लेकिन उन्हें अपने अभिग्रह के अनुसार शुद्ध आहार नहीं मिलता। इस प्रकार समभावपूर्वक भूखप्यास को सहते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया।
___ एक दिन भगवान् अरिष्टनेमि को वंदनार्थ श्रीकृष्ण वासुदेव आये। उन्होंने वंदना करके भगवान् से पूछा-"भगवन्! आपके १८००० साधुओं में दुष्कर कृत्य करने वाला साधु कौन है?'' भगवान् ने कहा- "मेरे सभी मुनियों में संयम की उत्कृष्ट आराधना करने वाले ढंढणमुनि हैं।" श्रीकृष्ण-"भगवन्! उनमें कौनसे गुण की विशेषता है? भगवान् ने ढंढणमुनि के दुष्कर अभिग्रह (सत्संकल्प) लेने की बात कही। सुनकर श्री कृष्ण हर्ष से नाच उठे और कहने लगे धन्यधन्य है ढंढणमुनि को, जिन्होंने इस प्रकार का विकट अभिग्रह धारण किया है! भगवन्! ढंढणमुनि इस समय कहाँ है? मुझे उन्हें वंदन करने की तीव्र इच्छा है।" भगवान् ने कहा "वह इस समय नगरी में भिक्षा के लिए गया हुआ है। तुम्हें रास्ते में सामने आता हुआ मिलेगा।" श्रीकृष्ण अपने हाथी पर बैठे हुए द्वारिका नगरी के बाजार से गुजर रहे थे, तभी सामने से ढंढणमुनि को आते हुए उन्होंने देखा।
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