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आलभ परिषह पर श्री ढंढणकुमार की कथा श्री उपदेश माला गोथा ३६
उसी धर्मपालन के प्रभाव पर कहते हैं
पुफियफलिए तह पिउघरंमि, तण्हा-छुहा-समणुबद्धा । ढंढेण तहा विसढा, विसढा जह सफलया जाया ॥३९॥
शब्दार्थ - ढंढणकुमार अपने पिता के यहाँ बहुत फूले-फले थे, लेकिन मुनि बनकर जैसे उन्होंने तृषा (प्यास) और क्षुधा (भूख) समभाव से सहन की, वैसे ही सहन करने (सहिष्णुता) से सफलता मिलती है ।।३९।।
भावार्थ - ढंढणकुमार ने कृष्ण वासुदेव के यहाँ जन्म लिया था। वे अपने घर में सर्वथा पुष्पित-फलित-यानि सब प्रकार की सुखभोग की सामग्री से युक्त, भरेपूरे घराने के थें। लेकिन कर्मक्षय करने के लिए वे मुनि बनें और अलाभपरिषह को समभाव से उन्होंने सहन किया। परिणाम स्वरूप उन्हें अपने कर्मक्षय रूप कार्य में सफलता मिली; केवलज्ञान रूपी उत्तम फल प्राप्त हुआ। ढंढणकुमार की कथा इस प्रकार है
श्री ढंढणकुमार की कथा ढंढणकुमार अपने पूर्वजन्म में पाँच-सौ हलधरों (किसानों) पर अधिकारी था। दोपहर में जब उनके भोजन का समय होता और उन सबके लिए भोजन आता, उस समय वह उनसे कहता-मेरे "खेत में एक-एक क्यारी में पहले हल चलाओ, उसके बाद ही तुम्हें भोजन करने दिया जायगा। बैलों को भी तभी खाने को दिया जायगा।" बेचारे पाँच सौ हलधर और एक हजार बैल उतनी देर तक भूख के मारे छटपटाते रहते। ५०० हलधरों और १००० बैलों के आहारपानी में प्रतिदिन इसी तरह अंतराय डालने के फलस्वरूप ढंढणकुमार के जीव ने उस जन्म में भारी अंतरायकर्म का बंध कर लिया। वहाँ से मरकर चिरकाल तक अनेक भवों में भटकने के बाद उसने द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव के यहाँ ढंढणारानी की कुक्षि से पुत्ररूप में जन्म लिया। ढंढणकुमार नाम से वह प्रसिद्ध हुआ। बचपन बीत जाने पर यौवन में कदम रखते ही उसके पिता श्री कृष्णजी ने उसका धूमधाम से विवाह किया। पत्नियों के साथ वैषयिक सुखों का उपभोग करते हुए सुख में काफी समय व्यतीत हुआ।
__ एक बार भगवान् श्री अरिष्टनेमि अपने शिष्य-समुदाय-सहित द्वारिका नगरी के बाहर एक विशाल उद्यान में पधारें। ढंढणकुमार आदि को साथ लेकर श्री कृष्णजी प्रभु को वंदन करने के लिए पहुँचे। सभी प्रभु को वंदना करके यथायोग्य स्थान पर बैठे। भगवान् ने कुबुद्धिरूपी अंधकारनाशिनी, पतितजनों का उद्धार 112