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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३८ अतिरौद्र चिलातीपुत्र की कथा सिर एक ओर फेंक दिये। अधोवस्त्र के सिवाय सारे कपड़े उतारकर फेंक दिये; शांत और निश्चिन्त होकर आँखों को मूंदकर, शरीर के अंगोपांगों और इन्द्रियों की चेष्टाओं को रोककर वही कायोत्सर्ग (ध्यान) में लीन हो गया। मन में उन्हीं तीन पदों पर गहराई से चिन्तन मनन और अन्तर्मंथन करने लगा। शरीर और कपड़े पर लगे हुए खून की गंध से शीघ्र ही वहाँ बहुत-सी वज्रमुखी चींटियां इकट्ठी हो गयी; वे चिलातीपुत्र के शरीर पर चढ़ गयी। और निःशंक होकर उसके शरीर का रक्त और मांस काटकर खाने लगीं। परंतु चिलातीपुत्र उस समय आत्मध्यान में इतना तन्मय हो गया था कि उसे आत्मा के सिवाय किसी और चीज का भान न रहा। 'यह शरीर मेरा नहीं, न मैं इसका हूँ' इस प्रकार के विचार में डूबकर उसने शरीर के प्रति आसक्ति भी छोड़ दी। आत्मध्यान से जरा भी विचलित न होने के कारण सिर्फ ढाई दिनों में चिलातीपुत्र ने अपने बहुत-से पापकर्मों का क्षय कर डाला और शरीर छूटने पर वहाँ से वह देवलोक में पहुँचा।' धन्य है इस धर्म को और इस धुरंधर को; जिनके प्रभाव से चिलातीपुत्र जैसा घोर पापी भी स्वर्गसुख का अधिकारी बना। धर्म का लक्षण और भेद इस प्रकार है दुर्गतिप्रपतत्-प्राणिधारणाद्धर्म उच्यते । संयमादि-दशविधः सर्वज्ञोक्तो हि मुक्तये ॥४७।। अर्थात् - यह धर्म इसीलिए कहलाता है कि यह दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को धारण करता है, बचाता है। वह सर्वज्ञों द्वारा कथित धर्म मुक्ति (कर्मबन्धनों से) के लिए ही है और वह संयम आदि १० प्रकार का है।।४७।। कई भोलेभाले लोग ऐसी शंका कर बैठते है कि बहुत पापकर्म करने वाले व्यक्तियों को धर्म कभी नहीं तार सकता; उनके समाधान के लिए धर्म के प्रभाव पर चिलातीपुत्र का ज्वलन्त उदाहरण ऊपर दिया गया है। चिलातीपुत्र ने जिस प्रकार धर्मधुरंधर मुनि के द्वारा कथित त्रिपदी पर मंथन करके संकल्पबद्ध होकर अपना कल्याण कर लिया था, उसी प्रकार अन्यजीवों को भी प्रवृत्त होना चाहिए।।३८॥ 1. जो तिहिं य पएहिं धम्म, समहिगओ संजमं समभिरुढो । उवसम-विवेग-संवर, चिलाइपत्तं नमसामि ।।१।। २. अहिसरिया पाएहिं सोणियगंधेण जस्स कीडीओ | खायंति उत्तमंगं, तं दुक्करकारयं वंदे ।।२।। ३. धीरो चिलाइपुत्तो मुइंगलियाहिं चालणिव्व कओ । सो तह वि खज्जमाणो, पडिवन्नो. उत्तमं अटुं ।।३।। ४. अड्ढाइज्जेहिं राइदिएहिं, पत्तं चिलाइपुत्तेणं । देविंदामरभवणं, अच्छरगणसंकुलं रम्मं ।।४।। [आवश्यक नियुक्ति ८७२-८७५] - 111
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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