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________________ अतिरौद्र चिलातीपुत्र की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३८ दुर्गपाल आदि ही काफी हैं,' यह जानकर सेठ अपने पुत्रों सहित चिलातीपुत्र के पीछे दौड़ा। सुसुमा भी थक गयी थी और चिलातीपुत्र भी। सुसुमा को साथ लेकर उसके लिये तेज भागना अब कठिन हो गया था। परंतु सुसुमा को वह दूसरों के हाथों में जाने देना नहीं चाहता था। इसीलिए फौरन निर्णय करके उसने तलवार निकाली और सुसुमा का सिर धड़ से अलग कर दिया। अब वह सुसुमा के धड़ को वहीं छोड़कर, कटे हुए सिर को लेकर भाग चला। धनावह सेठ आश्चर्य से देखता ही रह गया। अब आगे भागना निरर्थक समझकर वह अपने पुत्रों सहित वापिस लौट गया। चिलातीपुत्र पागलों की तरह कटे हुए सुसुमा के सिर को हाथ में लिये भागा जा रहा था। इसी रौद्रदशा में जाते-जाते रास्ते में उसने एक शांत, निर्विकार ध्यानस्थ मुनि को देखा। देखते ही वह उल्लंठता से बोला हे मुंड! धर्म कहो" [नही तो तलवार से सिर उड़ा दूंगा।] मुनि ने अपने ज्ञान से जाना कि "यह है तो महापापी, लेकिन धर्मबोध प्राप्त करके महान् बन सकता है।" मुनि ने संक्षेप में उसे कहा-"उपशम, विवेक और संवर प्राप्त करना धर्म है।" तीन रत्नों के समान यह त्रिपदी बताकर मुनि "नमो अरिहंताणं' बोलकर अपनी लब्धि के बल से आकाश में उड़ गये। चिलातीपुत्र कुछ देर तक तो आश्चर्यचकित रहा, फिर अंतर की गहराई में डूब गया। सोचा- "इस शांत, निःस्पृह और संतुष्ट महात्मा ने मुझे यथार्थ ही कहा है। वास्तव में मेरे सरीखे महापापी के लिए यहीं धर्म है; क्योंकि उपशम (शांति) प्राप्त किये बिना मैं क्रोध और आवेश की दशा में सही सोच नहीं सकता, सही विवेक नहीं कर सकता और न ही पापकर्मों से रुक सकता हूँ। और धर्माचरण किये बिना मेरी आत्मशुद्धि कदापि नहीं हो सकती। इसीलिए मुझे इन महापुरुष के वचनानुसार अवश्य चलना चाहिए; तभी मैं इनके समान शांत, निःस्पृह और संतुष्ट हो सकूँगा। धिक्कार है मुझे! मैं क्रोधांध बनकर अपने आपे में न रहा, एक युवती के पीछे मोहांध बनकर मैंने अपनी शांति खो दी, लोभांध बनकर मैंने चोरी का धंधा अपनाया, जिससे मेरा संतोष-धन नष्ट हो गया, मानांध बनकर मैंने हत्याएँ की। अब इस महापाप को धोने और अपनी आत्मा में स्थित होने के लिए 'उपशम' यानी क्रोधादि कषायों को शांत करना चाहिए, 'विवेक' यानी विकारोत्पादक बाह्य वस्तुओं का त्याग करना चाहिए और 'संवर' अर्थात् मनवचन-काया के दुष्ट (अशुभ) व्यापारों (प्रवृत्तियों) को रोकना चाहिए।' यों सोचकर चिलातीपुत्र ने फौरन अपने हाथ में ली हुई तलवार और सुसुमा का 110
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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