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श्री उपदेश माला गाथा ३७
जम्बूस्वामी की कथा
कर सकता हूँ? क्योंकि अनंत पापराशि संचित होती है, तब स्त्रीशरीर मिलता है। कहा भी है
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अणंता पावरासीओ, जया उदयमागया ।
तया इत्थीत्तणं पत्तं सम्मं जाणाहि, गोयमा ||४३||
अर्थात् - हे गौतम! इसे तूं भलीभांति जान ले कि अनंत पापराशियाँ जब उदय में आती हैं, तभी स्त्रीत्व प्राप्त होता है ||४३||
और भी कहा है
दर्शने हरते चित्तं, स्पर्शने हरते बलम् ।
संगमे हरते वीर्यं, नारी प्रत्यक्षराक्षसी ||४४||
अर्थात् - नारी दर्शन से चित्त हरण कर लेती है; स्पर्श करने पर बल का हरण (नाश) करती है और इसके साथ संगम ( सहवास ) करने पर वीर्य का हरण (नाश) करती है। इसीलिए नारी साक्षात् राक्षसी है || ४४ ॥
" इसीलिए मैं उस ललितांगकुमार के समान स्त्रियों के मोह में नहीं फंसता; जिससे अपवित्र ( गंदे ) कुंए सरीखे भवकूप में मुझे गिरना पड़े।" सभी पत्नियों ने उत्सुकता से पूछा - " वह ललितांगकुमार कौन था, प्राणेश! जो गंदे कुंए में गिरा था ? " जम्बूकुमार कहने लगे-लो, सुनो
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"वसंतपुर नगर में शतप्रभ नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम रूपवती था। वह 'यथा नाम तथा गुण' को सार्थक कर रही थी। रूप में इतनी अद्वितीय मोहिनी थी, मानो मोहराजा की ही राजधानी हो । राजा को वह अत्यंत प्रिय थी, लेकिन थी वह व्यभिचारिणी । एक दिन रूपवती अपने ' महल के गवाक्ष में बैठी हुई थी, तभी उसने ललितांग नामक एक सुंदर युवक को राजमार्ग से जाते हुए देखा। रानी उसका रूप देखते ही मोहित और कामातुर हो गयी। उसने अपनी एक विश्वस्त दासी से कहा - "अरी ! एक काम कर। किसी तरह से राजमार्ग पर जा रहे इस युवक को मेरे पास ले आ| " दासी झटपट ललितांग के पास पहुँची और उसे मधुर और नम्र शब्दों में कहा"महाशय ! आपको रानीजी याद कर रही हैं। बहुत जरूरी काम है, आपसे । चलिये आप मेरे साथ, मैं उनके महल में आपको पहुँचा देती हूँ।" ललितांग भी कामपिपासु और विषयवासना की भिक्षा के लिए भटकता था। उसने चट से आमंत्रण स्वीकारकर लिया और रानी के महल में जा पहुँचा। ललितांग को देखते ही रानी हावभाव और कामचेष्टाएँ करने लगी। लज्जा छोड़कर उसने अपने अंगों को प्रदर्शित करके कुछ ही देर में ललितांग को अपनी ओर
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