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________________ जम्बूस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ आकर्षित कर लिया।" कहा भी है स्त्री कान्तं वीक्ष्य नाभिं प्रकटयति, मुहुर्विक्षिपन्ती कटाक्षान्, दोर्मूलं दर्शयन्ती रचयति कुसुमापीडमुत्क्षिप्तपाणिः । रोमाञ्चस्वेदजृम्भाः श्रयति कुचतटं स्रंसि वस्त्रं विधत्ते, सोल्लंठं वक्ति, नीवीं शिथिलयति, दशत्योरमगं भनक्ति ॥५।। अर्थात् - स्त्री अपने प्रेमी को देखकर अपनी नाभि बार-बार दिखाती है, बार-बार तीखे कटाक्ष फेंकती है, बार-बार हाथ ऊंचे करके उसे काम पीड़ावश करती है। हाथ के मूल भाग (कांख) को दिखाती है और कामवासना उत्तेजित करती है; उसके रोमाञ्च और पसीना हो आता है। वह जम्हुहाइयां लेने लगती है, वस्त्र इस प्रकार से बार-बार उतर जाता है, जिससे वह उसे स्तन पर रखती है, बेधड़क बोलती है, अधोवस्त्र की गांठ ढीली करती है; दांतों को होठ से काटती है और अंगों को मोड़कर हाव भाव दिखाती है ॥४५॥ __ "रानी के मदमाते यौवन और तिरछे नेत्रों के कटाक्ष तथा हाव भाव को देखकर ललितांगकुमार अत्यंत मुग्ध और कामातुर हो गया। वह निःशंक होकर रानी के साथ रतिक्रीड़ा में मग्न हो गया। उसे यह होश भी नहीं रहा कि वह किसके साथ, कहाँ और कौन से समय सहवास कर रहा है? ठीक इसी समय राजा अपने महल में आ रहे थे। द्वार पर खड़ी दासी ने राजा के आने के समाचार रानी को दिये। सुनते ही रानी किंकर्तव्यमूढ़ हो गयी। अतिभय के कारण ललितांग को छिपाने का और कोई गुप्त स्थान न देखकर रानी ने उसे पाखाने (मलमूत्रस्थान) के संकड़े और गंदे कुंए में डाल दिया। जैसे कुछ भी न बना हो, इस प्रकार से रानी राजा के साथ हास्य और विनोदपूर्वक बातें करने लगी। इधर ललितांग गंदगी के उस दुर्गन्धित कुएं में पड़ा-पड़ा विचार करता है- "हाय! मैंने बड़ा अकृत्य करके अपने हाथों से दुःख को बुलाया है! धिक्कार है मेरी विषय लंपटता को।" वहाँ असह्य बदबू से ललितांग की नाक फटी जा रही थी; ऊपर से भी उस पर मल-मूत्र गिरता था, साथ ही साथ वह भूख और प्यास भी सहन कर रहा था, पर कुछ कर नहीं सकता था; क्योंकि सर्वथा पराधीन था। इस प्रकार की भयंकर कष्टकर स्थिति में दिन पर दिन बीतते चले गये। वह वहाँ अधमरा-सा हो गया; मगर किसी ने उसे पाखाने से बाहर नहीं निकाला। रानी तो अपने आमोद-प्रमोद में ललितांग को बाहर निकलवाना भूल गयी। मानो ललितांग से उसका कोई वास्ता ही न हो। व्यभिचारिणी स्त्री का प्रेम होता भी क्षणिक, स्वार्थी और बनावटी! परंतु 104
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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