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________________ जम्बूस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ कन्या अपने घर लौट आयी।" जयश्री ने आगे कहा-"जैसे कल्पित कथा को अनुभव का रूप देकर उस चतुर ब्राह्मण कन्या ने राजा का चित्त प्रसन्न कर दिया था, वैसे ही आप हमारे दिल को बहला रहे हैं। लेकिन आपकी यह प्रवृत्ति आत्मीयजनोचित नहीं है। सौ बात की एक बात यही है कि जो मनुष्य दीर्घद्रष्टा बनकर सोचविचारकर कदम उठाता है, उसी की शान बनी रहती है। इसीलिए आप पहले अपनी विवाहिता पत्नियों को संतुष्ट करके, विषयों का उचित मात्रा में सेवन करने के बाद ही मुनि दीक्षा ग्रहण करके अपने श्रेय को सिद्ध करें। ___जयश्री के युक्तिसंगत वचन सुनकर जम्बूकुमार बोले- "प्रिये! तुम सब तो बुद्धिमती हो। बुद्धिमान मनुष्य जानबूझकर अहितकारी कामों में नहीं पड़ता। मोह से घिरा हुआ मूढ़व्यक्ति ही विषयासक्ति जैसी अधर्मयुक्त प्रवृत्ति को धर्म मानता है और अपने को लिप्त करके भारी कर्मों को बांधता है। परंतु विषयसेवन का परिणाम बहुत ही बुरा और दुःखमय होता है। विष और विषय दोनों में काफी अंतर है। विष एक ही बार मारता है, लेकिन विषय तो बार-बार और मरे हुए को भी मारता है। नीतिज्ञों ने ठीक ही कहा हैभिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं, शय्या च भूः, परिजनो निजदेहमात्रं । वस्त्रं च जीर्णशतखण्डमयी च कन्था, हा हा! तथापि विषया न परित्यजन्ति।।४२।। अर्थात् - खाने के लिए भिक्षा से प्राप्त नीरस भोजन और वह भी एक बार मिला हो; सोने के लिए सिर्फ धरती हो, परिवार में केवल अपना शरीर हो और वस्त्र में केवल एक पुरानी एवं सौ जगह से फटी हुई गुदड़ी हो; ऐसी स्थिति में भी खेद है कि मनुष्य को ये विषय नहीं छोड़ते ॥४२॥ (या ऐसा व्यक्ति भी विषयों से मुक्त नहीं होता) इसीलिए हे धर्मपत्नियों! यदि तुम मेरे साथ पक्का वादा करो कि जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, वियोग और शोक आदि शत्रु मेरे पास नहीं आयेंगे, तब तो मैं तुम्हारे साथ विषयभोगों का रसास्वादन करने के लिए घर में रह सकूँगा। अन्यथा, अगर तुम मुझे जबर्दस्ती घर में रखोगो तो भी रोगादि के आने पर मुझे बचा नहीं सकोगी! रोग आदि से बचाने की है तुम में ताकत? सभी ने एक स्वर से कहा- "स्वामिन्! यह तो हमारे सामर्थ्य से बाहर की बात है। कौन ऐसा समर्थ है, जो संसार की इन स्थितियों को रोक सके!" इस पर जम्बूकुमार ने कहा-"यदि तुम सब इन शत्रुओं से रक्षा करने में असमर्थ हो, तब फिर मैं अशुचि (गंदगी) से भरी हुई और मोह की कुंडी के समान तुम्हारी देह पर प्रीति कैसे 102
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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