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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३७ जम्बूस्वामी की कथा करते देख गुस्से में आकर जान से मार डाला। संयोगवश वह भी मरकर महेश्वर की पत्नी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। महेश्वर अपने उस पुत्र से बहुत प्यार करता था। दैवयोग से श्राद्ध के दिन अपने पिता के जीव जंगली भैंसे को ही ले आया! उसे मारकर सारे परिवार को उसी का मांस खिलाकर तृप्त किया। इसी समय धर्मघोष मुनि भिक्षा के लिए वहाँ से होकर जा रहे थे कि उन्होंने ज्ञान से महेश्वर के घर का सारा वृत्तांत जानकर मुस्कुराते हुए कहा मारितो वल्लभो जातः, पिता पुत्रेण भक्षितः । __ जननी ताडयते सेयं, अहो मोहविजृम्भितम् ॥४०॥ अर्थात् - मारा हुआ यार ही प्रिय (वल्लभ) पुत्र के रूप में पैदा हुआ; भैंसे बने हुए पिता को ही पुत्र ने (मारकर) भक्षण किया; और कुतिया बनी हुई माता को पीटता है। अहो! मोहदशा बड़ी विचित्र है।।४०॥ __ यह श्लोक सुनते ही महेश्वर आश्चर्यचकित होकर पूछने लगा"स्वामिन्! आपने यह क्या अनोखी बात कही? यह बात तो कुछ-कुछ मेरे पर उतरती है। इसका रहस्य खोलकर कहिए।" मुनि ने सारी बात यथार्थरूप से बता दी। परंतु महेश्वर को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ! मुनि ने उसे प्रतीति कराने के लिए कुतिया को अपने पूर्वजन्म का घर में गड़ा हुआ धन बताने का कहा। जब कुतिया ने वह गड़ा हुआ धन बता दिया तो महेश्वर को विश्वास हो गया। महेश्वर ने तुरंत श्राद्ध आदि हिंसक तथा मिथ्याकर्म छोड़कर श्रावकधर्म का स्वीकार किया। कुतिया को जातिस्मरणज्ञान (पूर्वजन्म का ज्ञान) हो जाने से उसने भी मिथ्यात्व का त्याग किया और वहाँ से मरकर वह देवलोक में गयी। इसीलिए प्रभव! जरा सोचो तो सही; पुत्र के होने से कौन-सा श्रेय सिद्ध हुआ? कल्याणकार्य में कौन-सी सफलता मिली?" प्रभव ने सुनकर कहा- "जम्बूकुमारजी! मैं आपकी बात को भलीभांति समझ गया। परंतु आपने जैसे मुझे जीवितदान देकर पुण्यकार्य किया, वैसे ही मेरे परिवार के लोगों को भी बंधनमुक्त कर दीजिए। तब मैं भी निश्चिंत होकर आपके साथ ही मुनि दीक्षा ग्रहण कर लूंगा।" प्रभव के मुंह से अपने पति के दीक्षा लेने की बात सुनते ही जम्बूकुमार की प्रथम पत्नी समुद्रश्री बोली-"भाई प्रभव! तुम-जैसे दुष्कर्मकर्ता पुरुषों के लिए तो मुनिदीक्षा लेना उचित है, क्योंकि दुःखी जीवों को तो महासुख प्राप्ति की अपेक्षा से साधुजीवन अंगीकार करना श्रेयस्कर है; मगर जो सुखी जीव हैं, उन्हें संयम के घोर कष्टों में पड़कर अपने लिये अनिष्ट को क्यों बुलाना चाहिए? और संयम के घोर कष्टों में पड़े हुए लोग प्रायः दूसरों - 89
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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