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________________ जम्बृस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ रखी थी, उसके ऊपर मधुरस (शहद) से भरा हुआ मधुमक्खियों का एक छत्ता टंगा हुआ था; जिसमें से मधुमक्खियाँ उड़-उड़कर उसे बार-बार काट रही थी; साथ ही उस वृक्ष की शाखा को दो चूहे कुतर रहे थे। इतने महाकष्ट में पड़ा हुआ वह मूढ़ मनुष्य मधु के छाते से पड़ती हुई बूंद के स्वाद के कारण स्वयं को सुखी मान रहा था। उसी समय कहीं से कोई विद्याधर अपने विमान में बैठकर वहाँ आया और उसे दुःखी हालत में देखकर उसने उस पर दया लाकर उसके पास आकर कहा-"क्यों दुःखी हो रहे हो? आओ, मेरे विमान में बैठ जाओ। मैं तुम्हें दुःख से मुक्त कर दूंगा।" परंतु उस मूर्ख ने कहा- "एक क्षण ठहर जाओ, मैं एक मधुबिन्दु का स्वाद लेकर आपके पास आया।'' परंतु एक क्षण के बाद फिर वही बात दोहराता जाता था-"एक बूंद और ले लूँ, एक बूंद और!" विद्याधर उसकी मूढ़ता देखकर वहाँ से चला गया। बाद में वह मूर्ख अत्यन्त दुःखी । हुआ पछताने लगा।" इसीलिए हे प्रभव! मधुबिन्दु के समान ही संसार के इन विषयभोगों का विपाक है। यह संसार भी एक गहन जंगल है। इसमें अपने धर्मात्मा साथियों से बिछुड़कर जीव अकेला रहकर रंक बन जाता है। मृत्यु रूपी हाथी उसके पीछे दौड़ता है। वह उससे पीछा छुड़ाने के लिए विषयजल से भरे हुए जन्म मरण रूपी कुंए में लटकती हुई आयुष्य रूपी वट की शाखा को पकड़कर लटक जाता है। परंतु उसी कुंए में नरकगति और तिर्यंचगति रूपी दो अजगर हैं, उनके पास ही क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी ४ महासर्प हैं। कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष रूपी दो चूहे आयुष्य रूपी डाली को कुतर रहे हैं। विषयसुख रूपी मधुबिन्दु का छाता वही टंगा हुआ है, जिसमें आसक्त होकर जीव रोग, शोक, वियोग, भय आदि अनेक कष्टों को सहता रहता है। धर्म ही महान् सुख का कारण है। धर्मधुरंधर गुरुदेव विद्याधर के समान सुख को देने वाले हैं; वे धर्म-सुख रूपी विमान में आकर उसे उपदेश देते हैं कि "तुम धर्म रूपी विमान में आ जाओ; और विषयसुख रूपी मधुबिन्दु का लोभ छोड़ो। परंतु मूढ़ जीव उसी में फंसा रहता है।" यही मधुबिन्दु पुरुष का प्रेरणादायक दृष्टांत है। - प्रभव ने खुश होकर जम्बूकुमार से कहा- "जवानी में ही आपका परिवार, स्त्री आदि समस्त परिवार के साथ इस तरह सम्बन्ध तोड़ना ठीक नहीं है।" जन्बूकुमार ने कहा-"भाई! प्रत्येक जीव के साथ अनंत बार परस्पर अनेक रिश्तेनाते (सम्बन्ध) जुड़े हैं और बिछुड़े हैं। यही नहीं, एक ही जन्म में १८ रिश्तेनाते (सम्बन्ध) भी जुड़े हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। इन्हें तोडने में 86 -
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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