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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३७ जम्बूस्वामी की कथा खुशामद करके संतुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। आठों रमणियों ने उन्हें अपने हावभाव से, चेष्टाओं से और मधुर प्रेमालापों से विचलित करने का बहुतेरा प्रयत्न किया; लेकिन जम्बूकुमार जरा भी विचलित न हुए। ठीक उसी समय प्रभव नाम का चोरों का सरदार अपने ५०० चोर - साथियों के साथ जम्बूकुमार के यहाँ अपार धन चुराने की लालसा से आया। उसने जब घर के आंगन में धन का ढेर देखा तो अपने साथियों की सहायता से झटपट करोड़ों स्वर्णमुहरें गठड़ियों में बांधी और उन्हें सिर पर रखकर वे चलने लगे। जम्बूकुमार उस समय पंचपरमेष्ठी नमस्कारमंत्र का जाप कर रहे थें। उसके प्रभाव से सभी चोर दीवार पर चित्रित चित्र की तरह वहीं स्तम्भित (स्थिर) हो गये। चोरों के पैर वहीं ठिठक गये, वे एक कदम भी आगे न चल सके। इससे प्रभवचोर बहुत घबराया। उसने जम्बूकुमार को सम्बोधित करके कहा - 'प्रिय जम्बूकुमार ! आप जीवों पर दया करने वाले हैं। अभयदान के समान इस दुनिया में कोई पुण्य नहीं है। प्रातःकाल होते ही राजा कोणिक हम सबको गिरफ्तार करवा कर मरवा डालेगा। अतः दया करके हमें छोड़कर अभयदान दीजिए और हमारे पास तालोद्घाटिनी ( ताला खोलने की) और अवस्वापिनी ( निद्राधीन करने वाली) जो दो विद्याएँ हैं, उन्हें कृपा करके ग्रहण कीजिए एवं मुझे आपकी स्तम्भिनी विद्या दीजिए। " जम्बूकुमार ने कहा - " भाई ! मेरे पास तो एक धर्मकला नाम की विद्या है, और कोई विद्या नहीं। और न ही मुझे किसी अन्य विद्या की जरूरत है। क्योंकि धर्मकला की विद्या के बिना सारी विद्याएँ कुविद्याएँ हैं। उनसे आत्मा का कोई कल्याण नहीं हो सकता। इसीलिए मैं तो तिनके के समान समस्त विषयभोगों का परित्यागकर प्रातःकाल होते ही सुधर्मास्वामी से मुनिदीक्षा लेने वाला हूँ। भोगों में फंसकर मैं अब मधुबिन्दु - पुरुष के समान (जन्म मरण के) दुःख नहीं पाना चाहता । " प्रभवचोर ने उत्सुकता पूर्वक पूछा - " मधुबिन्दु पुरुष कैसे दुःख पाता है? मुझे सुनाइये।" जम्बूकुमार ने कहा - "लो, सुनो! अपने साथियों से बिछुड़ा हुआ एक आदमी एक भयंकर जंगल में घूम रहा था। एक जंगली हाथी ने उसे देखा और उसे मारने के लिए उसके सामने दौड़ा। वह आदमी भी भयभीत होकर बेतहाशा भागा। हाथी ने उसका पीछा किया। काफी भागने के बाद जब उसने रक्षा का कोई उपाय न देखा तो चट से एक कुंए में लटकती हुई वटवृक्ष की शाखा को पकड़कर लटक गया। परंतु ज्यों ही उसने नीचे देखा तो दो अजगर मुंह फाड़े खड़े थे। उन्हीं के पास ४ बड़े सांप बैठे थे। जिस वटवृक्ष की शाखा उसने पकड़ 1. अन्य कथानक में अवस्वापिनी एवं तालोद्घाटिनी विद्या के प्रयोग की बात लिखी है। 85
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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