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________________ जम्बूस्वामी की कथा श्री उपदेश माला गाथा ३७ यही परलोकधाम पहुँच जाता और मेरे मनसूबे धरे रह जाते। इसीलिए अच्छा तो यही है, इसी घटना से प्रेरणा लूँ।" जल्दी से जल्दी वापिस गुरु के पास जाकर उन्होंने लघुदीक्षा (आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत) का अंगीकार किया। फिर घर आकर माता-पिता को प्रणाम करके विनय पूर्वक बोले - " माताजी और पिताजी! सुधर्मास्वामी की वाणी सुनकर मुझे संसार से विरक्ति हो गयी है। यह संसार अनित्य है। विषयभोग भी पानी के बुलबुले के समान चंचल और अस्थिर है। कुटुम्ब - परिवार भी कर्मों के फलभोग के समय, सहायक रक्षक या शरणदाता नहीं होता। अतः आप मुझे दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान करें। मैंने अपना एक अन्तरंग - कुटुम्ब बना लिया है, उसी में मैं अनुरक्त हूँ। अब मैं औदासीन्य रूपी घर में निवास किया करूंगा। इस कुटुम्ब में विरति रूपी माता की सेवा करूँगा, योगाभ्यास रूपी पिता, समता रूपी धायमाता, निरागता रूपी प्रिय बहन, विनय रूपी अनुयायी बन्धु, विवेक रूपी पुत्र और सुमति रूपी प्राणप्रिया से स्नेह करूँगा। सम्यक्त्व रूपी मेरा अक्षय भंडार होगा और अमृत भोजन होगा ज्ञान का। अब मैं महान् दुःख देने वाले अन्तरंग मोह रूपी राजा की सेना को पराजित करने के लिए तप रूपी घोड़े पर सवार होऊंगा; भावना रूपी कवच को धारण करूँगा; अभयदान आदि मंत्रियों सहित संतोष रूपी सेनापति को आगे करके संयम के अनेक गुणों रूपी सेना सजाकर क्षपकश्रेणी रूपी गजघटा से परिवृत होकर, गुरु- आज्ञा रूपी शिरस्त्राण (युद्ध के समय मस्तक की रक्षा के लिए पहना जाने वाला लोहे का टोप ) धारण करके धर्मध्यान रूपी तलवार से मोह सेना को मारुंगा । लडूंगा। पुत्र के ये वैराग्यमय वचन सुनकर माता-पिता दंग रह गये। उन्होंने कहा"बेटा! पहले उन आठ कन्याओं के साथ तुम शादी करके हमारे मनोरथ पूर्ण करो । ऐसे माता-पिता के वचन श्रवणकर आठ कन्याओं से पाणिग्रहण किया। परंतु मन से निर्विकार ही था। आठों पत्नियों में से प्रत्येक के पितृगृह से नौ-नौ करोड़ स्वर्णमुहरें दहेज में आयी थीं, आठ करोड़ स्वर्णमुहरें आठों कन्याओं को मामा के यहाँ से प्राप्त हुई थीं, और एक करोड़ स्वर्णमुहरें जम्बू कुमार को मामा से मिली थी, ये ८१ करोड़ और १८ करोड़ स्वर्णमुहरें अपने घर में थीं। इस तरह जम्बूकुमार कुल ९९ करोड़ स्वर्णमुहरों के स्वामी थें। फिर भी वे अंतर से इन सबसे सर्वथा निरासक्त, निर्लेप और निर्विकारी थें । जम्बूकुमार रात को अपने शयनगृह में अपनी आठों पत्नियों से घिरे हुए बैठे हैं; लेकिन उनकी ओर राग या मोह की दृष्टि से नहीं देखते और न ही उन्हें 84
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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