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________________ मृगावती का दृष्टांत श्री उपदेश माला गाथा ३४ उठकर नगर में जहाँ साध्वियों का उपाश्रय था, वहाँ आयी। आते ही वह भयभीतसी आर्या चन्दनबालाजी के पास पहुँची। उस समय आर्याचन्दना साध्वी प्रतिक्रमण करके संथारा पोरसी पढ़ाकर संथारे (शयनासन) पर बैठी मन में विचार कर रही थी कि-"मृगावती कहाँ रह गयी? इतनी रात चली गयी, फिर भी वह नहीं आयी। कहाँ चली गयी?" इतने में ही मृगावती को सामने खड़ी देखकर उसकी वंदना स्वीकारकर उपालम्भ देने लगीं-'साध्वी मृगावती! तुम्हारे जैसी कुलीन साध्वी के लिए ऐसा करना योग्य नहीं है। साध्वियों को रात पड़ने पर उपाश्रय (अपने स्थान) से बाहर रहना उचित नहीं है। तुमने साध्वीधर्म-विरुद्ध यह आचरण किया है।" इस तरह आर्य चंदना के उलाहनाभरे वचन सुनकर मृगावती की आँखों से पश्चात्ताप के आंसू गिरने लगे। और मन ही मन वह आत्मनिन्दा करने लगी-"धिक्कार है मुझे! मैंने अपने इस अयोग्य व्यवहार से गुणवती गुरुणीजी के मन में संताप पैदा कर दिया।" मृगावती साध्वी शुद्धहृदय से पश्चात्ताप करते हुए हाथ जोड़कर अपनी गुरुणीजी से कहने लगी- "हे भगवती महाभागा! मैं मन्दभागिनी हूँ, जो आपके हृदय को आघात पहुँचाकर आपको अप्रसन्न कर दिया; बात यह थी कि सूर्यचन्द्र के दिन के उजाले की तरह प्रकाश देखकर प्रमाद के वश मैं रात होने के समय को नहीं जान सकी। मेरा अपराध क्षमा करें। भविष्य में मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगी।" इस तरह बार-बार क्षमायाचना करने लगी। और गुरुणी के चरणों में विनय पूर्वक नमस्कार करती और वैयावृत्य करती रही। आर्या चन्दना को निद्रा आ गयी। मृगावती आत्मनिन्दा करती रही। इस प्रकार आत्मनिन्दा करते-करते मृगावती में शुक्लध्यान रूपी अग्नि बढ़ती गयी और उसमें कठिन कर्म रूपी इन्धन-समूह जलता गया। फल स्वरूप साध्वी मृगावती को वहीं केवलज्ञान प्रकट हो गया। संयोगवश उसी समय एक काला विषधर सांप आर्या चन्दनाजी के संथारे के पास से जा रहा था, मृगावती को केवलज्ञान से दिखाई दिया तो उसने तुरंत आर्या चन्दना का हाथ, जो संथारा से बाहर था, वहाँ से हटाकर संथारे पर कर दिया। अपने हाथ से मृगावती के हाथ का स्पर्श होते ही आर्या चन्दनबालाजी जाग उठी और उन्होंने पूछा- 'मेरा हाथ किसने उठाया? मृगावती ने कहा- 'स्वामिनि! मेरा अपराध क्षमा करें। आपका हाथ मैंने ही उठाकर शय्या पर रखा था।" चंदनबाला-"साध्वी! क्या कारण था, मेरे हाथ को उठा कर शय्या पर रखने का?" मृगावती-"गुरुणीजी! एक सांप शय्या के पास आपके हाथ के पास होकर जा रहा था; इसीलिए मैंने आपका हाथ हटा दिया।" चंदनबाला-"ऐसे घने अंधेरे में तुम्हें सांप का पता कैसे चला? क्या कोई अतिशयी ज्ञान तुम्हें हुआ 78
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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