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श्री उपदेश माला गाथा ३५-३६
सरागधर्म में भी कषायशमन दुर्लभ नहीं है?''मृगावती-जी हाँ, गुरुणीजी! आपकी कृपा से ऐसा ही हुआ है?" चन्दनबाला"प्रतिपाती ज्ञान या अप्रतिपाती?" मृगावती-अप्रतिपाती!" चन्दनबाला-"तब तो मैंने केवलज्ञानी की आशातना की! केवलज्ञानी का दिल कठोर शब्द कह कर दुखाया! मुझे क्षमा करना! आपको केवलज्ञान हुआ है, इसका मुझे पता नहीं था" इतना कहकर चन्दनबाला साध्वी पश्चात्ताप की आग में आगे बढ़ी हुई केवलज्ञानी मृगावतीजी के चरणों में गिर पड़ी और अपनी आत्मनिन्दा में तत्पर हो गयी। जिससे आर्या चन्दनबालाजी को भी केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
__ जैसे मृगावती साध्वी ने उपालम्भ के रूप में हितकर, किन्तु कठोर बात को सुनकर किसी प्रकार का कषाय नहीं किया; उसी प्रकार अन्य साधकों को भी कठोर शब्दों में कही गयी हितकर बात सुनकर अपने में कषाय पैदा नहीं होने देना चाहिए ॥३४॥
इस कथा के द्वारा यही उपदेश दिया गया है।
किं सक्का योत्तुं जे, सरागधम्ममि कोइ अकसाओ । - जो पुण धरिज्ज धणियं, दुव्वयणुज्जालिए स मुणी ॥३५॥
शब्दार्थ - क्या यह कहा जा सकता है कि सरागधर्म में अकषायी कोई होता है? नहीं, मगर इस धर्म से युक्त जो साधक दुर्वचन रूपी आग से प्रज्वलित न होकर अकषाय को धारण करता है, वह धन्य है, वही वास्तव में मुनि है ।।३५।।
... भावार्थ - क्या ऐसा कहा जा सकता है कि वर्तमानकाल में सरागधर्म (राग-द्वेष के सर्वथा न छुटने से चारित्र में जहाँ रागादि का अंश रहता है) में किसी भी मुनि का सर्वथा कषाय रहित होना सम्भव नहीं, है। क्योंकि सर्वथा निष्कषायता आजकल कहाँ हो सकती है? परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सरागधर्म के दौरान किसी भी समय कषायरहितता नहीं हो सकती। बल्कि जो साधक किसी के द्वारा उच्चारित दुर्वचन रूपी इन्धन से प्रज्वलित (उत्तेजित) की हुई कषाय रूपी आग को अपने अंदर ही अंदर धारण कर लेता है, कषाय का उदय होने पर भी उसे प्रकट नहीं होने देता, वही मुनि धन्य है। क्योंकि सर्वथा कषाय-त्याग करना कठिन होते हुए भी जो दूसरों के कहे हुए दुर्वचनों को समभाव से सहकर उदित होते हुए कषायों को रोक लेता है, वही धन्य है; वह महापुरुष है ॥३५।।
कडुअं कसायतरुणं, पुप्फ च फलं च दोवि विरसाई । पुप्फेण झाइ कुविओ, फलेण पावं समायरइ ॥३६॥
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