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________________ श्री उपदेश माला गाथा ३४ मृगावती का दृष्टांत 'या सा सा सेति' और आपने उसका उत्तर दिया ‘सा सा सेति', परंतु यह अटपटी पहेली मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आयी। कृपा करके समझाएँ।" भगवान् ने कहा–'उसने यह पहेली पूछी थी कि जो मेरी बहन थी, क्या यह (जो मेरी पत्नी के रूप में है) वही है? लज्जा के कारण उसने अपनी स्त्री का स्वरूप नहीं पूछा। गौतम! तब मैंने भी उस पहेली का उत्तर दिया- 'या सा सा सेति' अर्थात् जो तेरी बहन थी, वही तेरी पत्नी है।' इसे सुनकर बहुत से जीवों को प्रतिबोध हुआ। मोहकर्म के अधीन होकर जीव अनाचरणीय कर्मों का भी आचरण करता है; यही इस कथा का सारांश है ।।३३।। पडिवज्जिऊण दोसे, निअए सम्मं च पायपडिआए । तो किर मिगायईए उप्पन्नं केवलं नाणं ॥३४॥ __ शब्दार्थ - अपने दोष स्वीकारकर सम्यक्प्रकार से गुरु के चरणों में पड़ी; इसी कारण मृगावती को केवलज्ञान प्राप्त हुआ ।।३४।।। भावार्थ - यह मेरा ही दोष है, ऐसा अंगीकार कर सम्यग्रूप से मन, वचन और काया इन तीनों योगों की शुद्धि से गुरुणी के चरणों में गिरकर, नमस्कार किया। यही कारण है कि श्री मृगावती ,साध्वी को पाँचवा ज्ञानश्रीकेवलज्ञान प्रकट हुआ। अतः विनय ही सर्व-गुणों का निवासस्थान है ॥३४|| यहाँ प्रसंगवश मृगावती की कथा दी जाती है मृगावती का दृष्टांत कौशाम्बी नगरी में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारें। उस समय सभी सुर, असुर, इन्द्र, करोड़ों देवताओं के साथ उन्हें वंदन करने के लिए आये। उस समय सूर्य और चन्द्र भी अपना मूलविमान लेकर वहाँ आ गये। उस समय आर्या चन्दनबाला साध्वी भी साध्वी मृगावती आदि को साथ लेकर वंदनार्थ वहाँ आयी। आर्या चन्दनबाला आदि साध्वियाँ तो प्रभु को वंदनकर वापस अपने उपाश्रय में आ गयी। परंतु साध्वी मृगावती सूर्य के प्रकाश के कारण दिन जानकर समवसरण में बैठी रही। यानि संध्याकाल हो गया था, तो भी दिन के उजेले की तरह सूर्य के प्रकाश के कारण वह नहीं जा सकी। काफी रात बीत गयी थी। सभी लोग भगवान् को वंदनकर अपने घर चले गये। परंतु मृगावती को बहुत रात होने पर भी मालूम नहीं हुआ। जब सूर्य और चन्द्र अपने-अपने मूलविमान में चढ़कर अपने स्थान को लौट गये; तब समवसरणभूमि पर अंधकार फैल गया। एकदम अंधकार फैला देख मृगावती हक्कीबक्की हो गयी। रात्रि काफी हो गयी थी, इसीलिए तुरंत वहाँ से - 77
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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