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शाखा के थे। समयसुन्दरजी महाराज थे तो बृहद् खरतरगच्छ की परम्परा के परन्तु जीवन के उत्तरकाल में जब गच्छ में मतभेद हुआ तो इन्हें खिन्न मन से अपने शिष्यों के हठाग्रह के कारण आचार्य जिनराजसूरि को छोडकर आचार्य शाखा के आचार्य जिनसागरसूरि के पक्ष को स्वीकार करना पड़ा था। परन्तु इस शाखाभेद से समाचारी में कोई भेद नहीं हआ था।
विधिमार्गप्रपा और आचार दिनकर आदि ग्रन्थों का हर गच्छ में आदर रहा है। आचार्य हीरविजयसरि लिखित हीर प्रश्न, आचार्य सेनसूरि द्वारा लिखित सेन प्रश्न आदि ग्रन्थों में कई स्थानों पर इन ग्रन्थों को प्रमाणभूत मानकर इनका उल्लेख किया गया है।
प्रस्तुत विधि संकलन में इन सभी ग्रन्थों व परम्पराओं का सहयोग लिया गया है। जहाँ कहीं मतभेद नजर आया है, वहाँ वृहत् खरतरगच्छ शाखा के समाचारी शतक एवं इस परम्परा द्वारा पुरस्कृत योग विधि की हस्तलिखित प्रतियों को केन्द्र में रख कर तदनुसार विधि संकलन किया गया है।। ___मैंने देखा है कि अपनी परम्परा में अनुयोग विधि का प्रायः प्रचलन नहीं है। जबकि समाचारी शतक आदि ग्रन्थों में अनुयोग विधि का स्वतंत्र रूप से उल्लेख करके वांचना देने का विधान है। इस संकलन में वांचना विधि भी दी गई है।
वांचना के अभाव में योगोद्वहन का उद्देश्य सार्थक भी नहीं होता। जैसे उपधान विधि में तप की पूर्णाहुति पर उस उस सूत्र की वांचना दी जाती है, उसी प्रकार आवश्यक, दशवैकालिक आदि सूत्रों के योगोद्वहन में वांचना दी ही जानी चाहिये। यथासंभव अर्थ सहित ही वांचना दी जानी चाहिये। यदि कारणवश अर्थ वांचना नहीं दी जा सके तो भी 'सूत्र वांचना तो देनी ही चाहिये।
वर्षों से यह भावना थी कि खरतरगच्छ की परम्परा के अनुसार छोटी बड़ी दीक्षा विधि की एक प्रामाणिक पुस्तक का प्रकाशन हो। छोटी दीक्षा विधि का प्रकाशन पूर्व में आचार्य जिनआनन्दसागरसूरि द्वारा पुस्तक रूप में तथा प्रताकार में किया गया था। परन्तु बड़ी दीक्षा विधि का प्रकाशन अद्यावधि नहीं हुआ था।
चूंकि खरतरगच्छ में साधु समुदाय बहुत अल्प रहा है। फिर उसमें बड़ी दीक्षा कराने का अधिकार पूर्व में मात्र गच्छनायक के पास ही सुरक्षित था। हर साधु बड़ी दीक्षा नहीं करा सकता था।
वर्तमान में विहार क्षेत्र बढ़ा है। दीक्षाएं भी लगातार हो रही है। ऐसी स्थिति में ऐसी प्रामाणिक विधि ग्रन्थ की तीव्र आवश्यकता महसूस की गई। अभी तक
योग विधि / 13
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