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को ही महत्व दिया जाता है। किसी साधु या साध्वी की लघु दीक्षा पूर्व में हुई हो, परन्तु उपस्थापना यदि पहले हुई है तो वही बडा माना जायेगा। उपस्थापना के आधार पर ही दीक्षा पर्याय की गणना की जाती है।
हालाकि वर्तमान में छोटी दीक्षा के समय ही दिग्बंध का आदेश लिये बिना नामस्थापना के अन्तर्गत दिग्बंध किया जाता है। ऐसा कब से प्रारंभ हुआ, कहना मुश्किल प्रतीत होता है।
जिनकल्प का उल्लेख - जिनकल्प का विच्छेद हो गया है, ऐसी घोषणा होने पर भी आचार दिनकर में प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत जिनकल्प दीक्षा विधि भी प्रस्तुत की है। यह आश्चर्य का विषय है। इससे कदाचित् यह अनुमान भी हो सकता है कि आचार दिनकरकार के समय में जिनकल्प प्रारंभ था। बाकी विधि तो समान ही कही है, कहीं कहीं अन्तर है। जैसे चोटी ग्रहण के स्थान पर जिनकल्पी दीक्षा विधि में संपूर्ण लोच होता है। वेष ग्रहण में मात्र तृणमय एक वस्त्रग्रहण किया जाता है। रजोहरण का निर्माण चामर से या मयूरपिच्छ से होता है। योगोद्वहन विधि में संघट्ट ग्रहण गृहस्थ के घर में ही होता है। हाथ रूप पात्र में ही भोजन होता है।
तथा जिनकल्पिनां प्रव्रज्यायामयं विशेषः अट्टाग्रहणस्थाने संपूर्णलोचकरणं प्रथमं मुण्डनं नास्ति। वेषग्रहणस्थाने तृणमयैकवस्त्रग्रहणं रजोहरणं चामरमयूरपिच्छमयं शेषं तथैव उत्थापनायोगोद्वहनादौ गृहस्थगृह एव संघट्टादानं संघट्ट प्रतिक्रमणं पाणिपात्रभोजनं च। शेषः सर्वोऽपि विधिस्तथैव।
खरतरगच्छ की परम्परा में वि. 1363 विजयादशमी के दिन आचार्य श्री जिनप्रभसूरि ने विधिमार्गप्रपा की रचना करके गच्छ की सुविहित शास्त्रीय विधियों का व्यवस्थित रूप से आलेखन किया। उसके 105 वर्षों के बाद आचार्य वर्धमानसूरि ने वि. 1468 में आचार दिनकर नामक महाग्रन्थ लिखा। विधि विषयक इस प्रकार के ग्रन्थ अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रश्न है कि जब दोनों आचार्य खरतरगच्छ की ही परम्परा के थे, तब विधि प्रणालिका में अन्तर किस कारण नजर आ रहा है।
चिंतन करने पर इसका कारण यही ज्ञात होता है कि दोनों आचार्य खरतरगच्छ की परम्परा के होने पर भी ये पृथक् पृथक् शाखाओं के थे। आचार्य जिनप्रभसूरि लघु खरतर शाखा के आचार्य थे तो आचार्य वर्धमानसूरि रूद्रपल्लीय
12 / योग विधि