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कराने का विधान है। आवश्यक एवं दशवैकालिक योगोद्वहन होने के बाद किसी कारणवश बड़ी दीक्षा नहीं हो पाई हो तो योगोद्रहन से बाहर आने के बाद छह माह के अन्दर अन्दर बड़ी दीक्षा अनिवार्य होती हैं। यदि छह महिने में बड़ी दीक्षा नहीं हो पाती तो योगोद्वहन पुनः करने होते हैं ।
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विधिमार्गप्रपा में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार उपलब्ध होता हैउट्ठावणा जहन्नओ सत्तराइदिएहिं सा पुण पुव्वोवट्ठावियपुराणस्स कीर । मज्झिमओ चउहिं मासेहिं, सा य अणहिज्जओ मंदसद्धस्स य। उक्कोसओ छम्मासेहिं, सा य दुम्मेहस्स ।
अर्थात् जघन्य से सात दिन के बाद उपस्थापना हो सकती है। लेकिन इतनी शीघ्र उपस्थापना उसी की हो सकती है, जो पूर्व में उपस्थापित हो और कारणवश उसकी पुनः उपस्थापना करनी पडी हो । मध्यम से चार मास में उपस्थापना होती है। यह सामान्यबुद्धि वाले साधुओं के लिये हैं। जो अत्यन्त मंदबुद्धि हो, उनकी उपस्थापना उत्कृष्ट से छह मास में होती है।
योग तप
आवश्यक एवं दशवैकालिक सूत्र के तप के संदर्भ में भी परम्परा भेद पाया जाता है। विधि मार्ग प्रपा में सूत्र के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के दिन आयंबिल करने का विधान बताया गया है, शेष दिनों में निर्विकृतिक करनी चाहिये। यह विधान भगवती, प्रश्नव्याकरण एवं महानिशीथ को छोडकर हर सूत्र के योग में लागू होता है।
सुयक्खंधस्स अंगस्स य उद्देसे समुद्देसे अणुण्णाए य आयंबिलं । अन्नदिणेसु निव्वीयं । एवं सव्वेजोगेसु नेयं, भगवई - पण्हावागरणमहानिसीहवज्जं। अन्नसामायारीसु पुण निव्वियंतरियाणि आयंबिलाणि चेव कीरति ।
आचार्य जिनप्रभसूरि ने विधि मार्गप्रपा अन्य समाचारी का वर्णन करते हुए ये भी लिखा है कि अन्यत्र एकान्तर आयंबिल और निर्विकृतिक से भी योगोद्वहन होते हैं।
आचार दिनकर में आचार्य वर्धमानसूरि ने एकान्तर आयंबिल और निर्विकृतिक तप से योगोद्वहन करने का लिखा है।
- आचार दिनकर, प्रथम विभाग, पत्र 92/93 वर्तमान में खरतरगच्छ की परम्परा में विधिमार्गप्रपा के आधार पर तपोविधि कराई जाती है। सूत्र के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के दिन आयंबिल
योग विधि / 7