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इस तथ्य का प्रमाण व्यवहार भाष्य के तीसरे उद्देशक की 174वीं गाथा प्रस्तुत करती है
पुव्वं सत्थपरिणा, अधीयपढियाइ होउ उवट्ठवणा। इण्हिं छज्जीवणया किं सा उ न होउ उवट्ठवणा174॥ इस गाथा की टीका करते हुए आचार्य मलयगिरि फरमाते हैं
पूर्वं शस्त्रपरिज्ञायामाचारांगान्तर्गतायामर्थतो ज्ञातायां पठितायां सूत्रतः उपस्थापना अभूत्। इदानीं पुनः सा उपस्थापना किं षट्जीवनिकायां दशवैकालिकान्तर्गतायामधीतायां पठितायां च न भवत्येवेत्यर्थः॥
__ - अर्थात् पूर्व में आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन शस्त्र परिज्ञा अर्थ सहित पढने पर उपस्थापना अर्थात् बड़ी दीक्षा प्रदान की जाती थी। किन्तु अभी दशवकालिक सूत्र के षट्जीवनिकाय अध्ययन पढकर उपस्थापना अर्थात् बड़ी दीक्षा प्रदान की जाती है।
इन शास्त्र प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि आवश्यक सूत्र एवं दशवैकालिक सूत्र के योगोद्वहन किये बिना बड़ी दीक्षा हो ही नहीं सकती। परन्तु वर्तमान में खरतरगच्छ की परम्परा में दशवकालिक सूत्र के योगोद्वहन का बड़ी दीक्षा के साथ कोई संबंध नहीं रहा है। बड़ी दीक्षा हेतु आवश्यक योगोद्वहन को ही अनिवार्य माना जाता है। मांडलिक योग सांभोगिक व्यवहार के लिये कराये जाते हैं।
इसमें भी समय समय पर सुविधानुसार परिवर्तन किये गये हैं। शास्त्रों के अनुसार तो आवश्यक योग के 8 दिन तथा दशवकालिक के 15 दिन अर्थात् 23 दिन के योगोद्वहन होने पर ही बड़ी दीक्षा होनी चाहिये। परन्तु वर्तमान में कई साधु साध्वियों की लघु दीक्षा होते ही तीसरे दिन बड़ी दीक्षा करा दी जाती है तथा बाद में योगोद्वहन चलता रहता है। यह सिद्धान्त विरुद्ध भी है और परम्परा विरुद्ध भी!
कभी कभार किसी गीतार्थ आचार्य ने अपवाद स्वरूप मलमास आदि लगने के कारण, मुहूर्त न आने की स्थिति में परिस्थितिवश अपरिहार्य कारणों से जल्दी में बड़ी दीक्षा करा भी दी हो, तो भी वह परम्परा नहीं बन सकती।
उसमें भी आवश्यक योग तो अनिवार्य है ही। विधानानुसार जल्दी से जल्दी अपवाद स्वरूप दशवैकालिक योगोद्वहन से पूर्व आवश्यक योग पूर्ण होने पर अर्थात् 9वें दिन बड़ी दीक्षा हो सकती है।
तपागच्छ के एतद्विषयक ग्रन्थों में जल्दी से जल्दी 13वें दिन बड़ी दीक्षा
6 / योग विधि