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के पालक भगवान की स्नात्र पीठ के रूप में स्थापित हुआ है। नरकान्ते! तथा नारी-कान्ते! रूप्ये परितोषरसातिरेकम्। कुर्युः कुतूहलं (च) लोत्कलिकाऽऽकुलत्वं, देवा मुहूर्तमपि सोढु-मपारयन्त।
भावार्थः उत्कृष्ट उत्पन्न भक्ति भाव से सभर मन के भाव, आनन्द रस का अतिरेक, तथा कुतूहल से प्रबल तालवंत आकुलता इन सबके कारण मुहूर्त मात्र भी विलंब सहन करने में असमर्थ देवता भी जिन अभिषक करते हैं। तात्पर्य सकल सत्वों पर उपकार करने में असाधारण दक्ष निष्कारण बंधु ऐसे जिनेश्वर भगवान के जन्म से उत्पन्न आनन्द को व्यक्त करने के लिये देवता भी उनका अभिषेक करते हैं।
रक्षार्थमाहितविरोध-निरोधहेतो-लोकत्रयाधिकविभुत्व-विभावनाय । कल्याणपञ्चकनिबद्ध-सुरावतार-संवित्तये च जिनजन्मदिनाभिषकम् ।।
भावार्थः रक्षा के लिये, उपस्थित हुए विरोध को रोकने के लिये और तीनों लोक में उनका विभुत्व विख्यात करने के लिये तथा पाँच कल्याणक च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण प्रसंग पर उपस्थित देवों के आगमन को बताने के लिये जिनेश्वर का जन्म दिवस पर अभिषेक करते हैं।
यो जन्मकाले कनकाद्रि-शृंगे यश्चादिदेवस्य नृपाधिराज्ये। भूमण्डले भक्तिभरावननैः सुरासुरेन्द्रैर्विहितो अभिषेकः ।
भावार्थः जो अभिषेक भगवान के जन्म समय पर कनकाद्रि (सुवर्णगिरि-मेरूपर्वत) के शिखर पर और आदिदेव ऋषभदेव के राजाधिराज्य प्रसंग के वक्त भूमण्डल पर भक्ति-भाव से सभर सुरेन्द्रों ने अभिषेक किया।
ततः प्रभूत्येव कृतानकारं, प्रत्यादृतैः पुण्यफल प्रयुक्तैः । श्रितो मनुष्यैरपि बुद्धिमद्भिः, महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।