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'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका' की रचना वि. सं. १६४५ जैसलमेर में की थी। १६५० में जिनकुशलसूरि चरणों की स्थापना जैसलमेर में की थी। संवत् १६५२ में पुण्यसागर महोपाध्याय के उपदेश से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका की प्रतिलिपि लिखी गई थी। अतः यही सम्भावना की जा सकती है कि १६५२ के पश्चात् ही इनका स्वर्गवास जैसलमेर में ही हुआ हो। सम्भव है वृद्धावस्था के कारण इन्होंने जैसलमेर में ही स्थिरवास कर लिया हो। स्वर्गगमन के समय इनकी आयु लगभग ९० वर्ष की मानी जा सकती है। साहित्य-निर्माण
महोपाध्याय पुण्यसागरजी आगम साहित्य, काव्य साहित्य, व्याकरण शास्त्र के उद्भट विद्वान् थे। प्राकृत, संस्कृत और राजस्थानी भाषा के भी प्रौढ़ विज्ञ थे। युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि रचित 'पौषघ विधिप्रकरण बृहद्वृत्ति' का संशोधन भी १६१७ में इन्होंने किया था। इससे स्पष्ट है कि विधि-विधान साहित्य के भी मर्मज्ञ थे। इनके द्वारा सर्जित संस्कृत भाषा में मौलिक ग्रन्थ प्राप्त नहीं है किन्तु टीका ग्रन्थ ही प्राप्त हैं। राजस्थानी भाषा में इनकी छोटी कृतियाँ प्राप्त होती हैं। क्रमशः इनका परिचय प्रस्तुत है:
१. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका - इस उपाङ्ग पर इन्होंने १६४५ जैसलमेर में महाराजा श्री भीमसिंहजी के राज्य में रचना की। इन्हीं के शिष्य वाचक पद्मराज ने जिसके लिए टीकाकार ने स्वयं उल्लेख किया है :'युक्तायुक्तविवेचकाः' ने इस रचना में सहयोग दिया था और ज्ञानतिलकगणि ने इसका प्रथमादर्श लिखा था। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति भूगोल सम्बन्धी ग्रन्थ है। उसकी रचना में आगमिक ज्ञान के साथ भूगोल सम्बन्धी ज्ञान भी अपेक्षित है। श्री अभयदेवसूरि और मलयगिरि कृत अन्य टीकाओं का उपयोग करते हुए यह टीका लिखी गई है। टीका की रचना प्रशस्ति निम्न है:
. इति श्रीबृहद्खरतरगच्छावतंस-श्रीजिनहंससूरिशिष्यश्रीपुण्यसागरमहोपाध्यायविरचिता श्रीजम्बूद्वीप्रज्ञप्तिवृत्तिः समाप्ता॥
श्रीमच्चन्द्रकुले सुधर्मगणभृत्पट्टानुपूर्वीभवाः, श्रीउद्योतनसूरयः समभवन् ज्ञानक्रियाशालिनः। ध्यानाराधितनागराट्प्रकटितश्रीसूरिमन्त्रस्फुरमाहात्म्या गुरवस्ततो रुरुचिरे श्रीवर्द्धमानाभिधाः॥१॥