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________________ ३७. पार्श्वजिन स्तोत्र (नमस्यद्गीर्वाण)* ३८. पार्श्वजिनस्तोत्र (पायात्पार्श्व०)* ३९. पार्श्वजिन स्तोत्र (देवाधीश०)* ४०. पार्श्वजिन स्तोत्र (समुद्यन्तो०)* ४१. पार्श्वजिन स्तोत्र (विनयविनमद्०)* ४२. पार्श्वजिन स्तोत्र चित्रकाव्यात्मक (शक्तिशूलेषु०)* ४३. पार्श्वजिन स्तोत्र चक्राष्टक (चक्रे यस्य नतिः)* ४४. सरस्वती स्तोत्र (सरभसलसद्). ४५. नवकार स्तव (किं किं कप्पतरु०) * - भारतीय साहित्य में यह असाधारण घटना है कि जिनवल्लभ के १४ ग्रंथों की रचना पर उनके स्वर्गवास के तीन वर्ष के पश्चात् से ही अर्थात् वि०सं० ११७० से १८०० तक बृहद्गच्छीय, चन्द्रकुलीय, चन्द्रगच्छीय, राजगच्छीय, तपागच्छीय, खरतरगच्छीय, आप्त एवं धुरन्धर आचार्यों/विद्वानों ने ७४ टीकाओं की रचना की हैं। अज्ञात कर्तृक १४ संख्या कम करने पर भी मुनिचन्द्रसूरि, धनेश्वरसूरि, महेश्वराचार्य, चक्रेश्वराचार्य, मलयगिरि, यशोदेवसूरि, यशोभद्रसूरि, उदयसिंहसूरि, अजितदेवसूरि, जिनपतिसूरि, जिनपालोपाध्याय, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि, संवेगदेवगणि आदि साक्षर विद्वानों ने अपनी-अपनी टीकाओं में नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के शिष्य 'जिन' अर्थात् जिनेश्वरों के 'वल्लभ' अर्थात् अत्यन्त प्रिय जिनवल्लभसूरि को सिद्धान्तविद् एवं आप्त मानते हुए टीकाओं के माध्यम से अपनी भावांजली प्रस्तुत की है। जिनवल्लभसूरि का भाषा ज्ञान और शब्द कोश अक्षय था। वे प्राकृत और संस्कृत भाषा के उच्चकोटि के विद्वान् थे और इन भाषाओं पर उनका पूर्ण प्रभुत्व था। आचार्य जिनवल्लभ का संक्षिप्त जीवन परिचय, जिनवल्लभसूरि द्वारा स्वप्रणीत अष्टसप्तति, जिनपालोपाध्याय प्रणीत खरतरगच्छालङ्कार युगप्रधानाचार्य चिह्नान्तर्गत ग्रंथ विविध संस्थाओं से प्रकाशित हैं। प्रकाशन संस्थाओं के नाम के लिए . वल्लभ-भारती प्रथम खण्ड देखें। . * चिह्नांकित ग्रंथ अद्यावधि अप्रकाशित हैं। * चिह्नांकित मूल ग्रंथ प्रकाशित हैं। * क्रमाङ्क १-४५ मूलग्रन्थ 'जिनवल्लभसूरि ग्रन्थावली'- में प्रकाशित हैं। ० चिह्नांकित ग्रन्थ यन्त्रस्थ हैं।
SR No.002344
Book TitlePrashnottaraikshashti Shatkkavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages186
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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