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महाविद्वान् देवभद्राचार्य ने वि०सं० ११६७ आषाढ़ सुदि६ के दिन बड़े महोत्सव एवं विधि-विधान के साथ इनको आचार्य पद प्रदान कर आचार्य अभयदेवसूरि का पट्टधर घोषित किया। संयोगवशात् उसी वर्ष वि०सं० ११६७ कार्तिक अमावस्या दीपावली की मध्य रात्रि में इस शरीर को छोड़कर जिनवल्लभसूरि चतुर्थ देवलोक को प्रस्थान कर गये।
___ अनुमानतः इनका जन्म समय १०९० मान सकते हैं। वि०सं० ११२५ के पूर्व ही ये आचार्य अभयदेव के सम्पर्क में आ गये थे और ११६७ में इनका स्वर्गवास हुआ। अतः इनका समय १०९० से ११६७ के मध्य स्वीकार किया जा सकता है।
आचार्य जिनेश्वरसूरि की पट्ट-परम्परा में जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि . और जिनवल्लभसूरि हुए। जिनवल्लभसूरि के पट्टधरों में दादागुरुदेव युगप्रधान जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि हुए। यह परम्परा आज भी खरतरगच्छ के नाम से अविच्छिन्न रूप चली आ रही है। जिनवल्लभसूरि के सतीर्थ्य भ्राता जिनशेखरसूरि से विक्रम सम्वत् १२०४ में रुद्रपल्लीय शाखा का आविर्भाव हुआ जो १८वीं शताब्दी तक प्रगतिशील रही।
साहित्य-सर्जना - १२वीं शताब्दी के उद्भट विद्वानों और मूर्धन्य आचार्यों में इनकी गणना की जाती है। इनका अलङ्कार शास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष, नाट्यशास्त्र और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था। प्राकृत और संस्कृत भाषा के भी ये प्रौढ़ विद्वान् थे। इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी। जिसका उल्लेख गणधरसार्द्धशतक की बृहवृत्ति (१२९५) में सुमतिगणि इस प्रकार करते हैं:
___ 'परमद्यापि भगवतामवदातचरितनिधीनां श्रीमरुकोट्टसप्तवर्षप्रमितकृतनिवास-परिशीलितसमस्तागमानां समग्रगच्छादृत- सूक्ष्मार्थसिद्धान्तविचारसार-षडशीति-सार्द्धशतकाख्यकर्मग्रन्थ-पिण्डविशुद्धि-पौषधविधिप्रतिक्रमणसामाचारी-सङ्घपट्टक-धर्मशिक्षा-द्वादशकुलकरूपप्रकरणप्रश्नोत्तरशतक-शृङ्गारशतकनानाप्रकारविचित्रचित्र-काव्य-शंतसंख्यस्तुतिस्तोत्रादिरूपकीर्तिपताका सकलं महीमण्डलं मण्डयन्ती विद्वज्जनमनांसि प्रमोदयति।