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________________ प्रकाशकीय ज्ञानपद भजीये, जगत सुहंकलं... सर्वतोमुखीप्रतिभासंपन्न अनेक श्रमण एवं श्रमणीयाँ समय-समय पर जिनशासन को प्राप्त हुए हैं । उन्होंने तप-जप-साधना-ज्ञान-प्रवचन-तर्क आदि में से कोई एक क्षेत्र में स्वप्रतिभा एवं सामर्थ्य के बल पर प्रगति कर अन्य दर्शनों में जैनदर्शन को अग्रिम स्थान दिया है । उन क्षेत्रो में से साहित्य क्षेत्र को लक्ष में रखकर कृति-कृतिकार के भेद को भूलकर कोषछंद-नाट्य-काव्य आदि के आकर ग्रंथो पर टीका ग्रंथो का निर्माण भी उन्होंने किया है। पूज्याचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी कृत ऐसा ही एक 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्यम्' नामक ग्रंथ का महो. पुण्यसागरजी कृत टीका सह प्रकाशन पू. शासनसम्राट् श्री नेमि-विज्ञान-कस्तूर-चंद्रोदय-अशोकचंद्रसूरिजी म. के पट्टधर पू. आचार्य श्री विजयसोमचंद्रसूरिजी म. की प्रेरणा एवं महो. श्री विनयसागरजी के मार्गदर्शनानुसार हो रहा है । यह एक आनंदप्रद समाचार है। श्री विलेपार्ले श्वे.मू.पू. जैन संघ एन्ड चेरीटीझ, पार्ला-श्री संघ ने इस ग्रंथप्रकाशन में सहयोग देकर श्लाघार्ह श्रुतभक्ति प्रदर्शित की है । पूज्यश्री के द्वारा प्राप्त होने वाले जगत सुखकर ऐसे श्रुतपद की भक्ति का अवसर हमें पुनः पुनः प्राप्त हो यह अपेक्षा सह... ली. श्री रांदेर रोड जैन संघ, सुरत एम.एस.पी.एस.जी. चेरिटेबल ट्रस्ट, जयपुर
SR No.002344
Book TitlePrashnottaraikshashti Shatkkavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri, Somchandrasuri, Vinaysagar
PublisherRander Road Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages186
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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