________________
अपार आनन्द होता है, साढ़े तीन करोड़ रोमराजि विकसित हो जाती है, मनमयूर नाच उठता है, काया काम करने लगती है, दोनों हाथ वन्दना की मुद्रा में जुड़ जाते हैं, दोनों नेत्र देख रहे हैं, सिर-मस्तक झुक जाता है और वदन-मुख में से अनन्तज्ञानादि गुणों के खजाने-भण्डार ऐसे वीतराग भगवान के गीत-गान एवं स्तुति-स्तवनादि भक्तिभाव पूर्वक स्वतः निकलते हैं। ___ 'समस्त दोष-रहित सर्वज्ञ विभु हे जिनेश्वर देव ! आपकी मूत्ति, आपकी प्रतिमा कैसी है ?'
(१) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा दिव्यस्वरूपी 'अतीव सुन्दर' है।
(२) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा 'अनुपम अलौकिक' है।
(३) हे प्रभो ! तेरी मूर्ति, तेरी प्रतिमा 'अद्वितीय अजोड़' है।
(४) हे प्रभो ! तेरी मूत्ति, तेरी प्रतिमा 'सर्वदा निर्विकारी' है।
(५) हे प्रभो ! तेरी मूर्ति, तेरी प्रतिमा 'नित्य मनोहारिणी' है।
मूत्ति की सिद्धि एवं मूर्तिपूजा की प्राचीनता-७६